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ककड़ी की कीमत
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दुपल्ली टोपी और चौखाने का अंगोछा कंधे पर पड़ा हुआ था।

ककड़ियों को देखकर उसने कहा-सिर्फ दो ही रवे हैं?

'अभी ककड़ियां कहां? वह तो कहो, मैं चार रवे लाया था। दो बिक गए, दो ये हैं। लेना हो तो लो, मोलभाव का काम नहीं, चवन्नी लूंगा।'

बूढ़ा कहार अभी नहीं बोला था। एक युवक ने तीव्र आवाज़ में कहाअठन्नी लो जी, ककड़ियां हमें दो।

पहलवान युवक भी कहार था। उसकी मसें अभी भीगी थीं। भुजदण्डों में मछलियां उभर रही थीं। उसने हेरती हुई आंखों से बूढ़े कहार की ओर देखा और अठन्नी ठन से झाबे में फेंक दी।

'सौंदा हमसे हुआ है जी, ककड़ियां हम लेंगे। यह लो एक रुपया। ककड़ियां हमें दो।'

कुंजड़ा क्षण-भर स्तम्भित रहा। उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से युवक की ओर देखा। युवक ने कहा-कुछ परवाह नहीं, हम दो रुपये देंगे।

'हम पांच रुपए देते हैं।'

'हम दस देते हैं।'

'यह लो बीस रुपये। ककड़ी तो हम खरीद चुके।'

'पच्चीस हैं यह, ककड़ी हमने ले ली।'

'हमने तीस दिए।

युवक के माथे पर बल पड़ गए। उसने कहा-हम पचास में खरीदते हैं। लाओ ककड़ियां इधर दो।

बूढ़े कहार ने हंस दिया और आज्ञा की दृष्टि से युवक की ओर देखकर ज़रा सीधा खड़ा होकर उसने तेज़ स्वर में कहा-मैंने सौ रुपये में दोनों ककड़ियां खरीद लीं।

युवक कहार क्षण-भर घवराई दृष्टि से बूढ़े की ओर देखता रहा। बूढ़े ने विजयगवित दृष्टि से उसे घूरते हुए कहा-दम हो तो बढ़ो आगे। ककड़ियां पांच हजार तक मेरे यहां जाएंगी।

सैकड़ों आदमी इकट्ठे हो गए थे। युवक लज्जा और क्रोध से भरकर चुपचाप चल दिया। सैकड़ों कण्ठों से नारा बुलन्द हुआ-वाह भाई, महरा, क्यों न हो? आखिर तू है किस घराने का नौकर, जो इस समय दिल्ली की नाक है। शाबाश!