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रानी रासमणि
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केवल एक जून हविष्यान्न भोजन करती हूं तथा केवल गंगाजल को छोड़ और कुछ ग्रहण नहीं करती, शूद्रा हूं बेटी, गत ग्यारह बरस से मेरा यही नियम चल रहा है। स्वार्थवश ही यह कर रही हूं। इससे कदाचित् मेरा शूद्र योनि से उद्धार हो जाए।' यह कहकर रानी आसन छोड़ उठ खड़ी हुई।

शुभदा ने कहा-मां, आप दिव्यरूपिणी हैं। कौन आपको शूद्र कहता है? जहां आप जैसी साध्वी की चरणरज पड़ेगी वह भूमि तो एक योजन तक पवित्र होजाएगी। इतना कहकर हठात् शुभदादेवी ने गले में आंचल डालकर भू-पतित हो, रानी के चरणों में मस्तक टेक दिया।

'यह क्या किया, यह क्या किया बेटी-गोविन्द, गोविन्द, तुमने जो मुझे पातक लगा दिया। ब्राह्मण की कन्या होकर मेरे पैरों में सिर दे दिया! छी, छी!!'

'मां, अपने सारे जीवन में आज मुझसे एक पुण्य कार्य हुआ। मेरा जीवन धन्य हुआ।'

शुभदा की आंखों से आंसू बह चले। रानी ने फिर उसकी ठोड़ी छूकर अपनी उंगलियां चूमी, और आकर पालकी में बैठ गई।