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रानी रासमणि
 

थीं। उनके प्रतिष्ठित देवता भी ब्राह्मणों के लिए अस्पृश्य थे। उन दिनों बंगाल में छुआछूत और जात-पात का ऐसा ही असाध्य रोग चल रहा था।

दक्षिणेश्वर के बगीचे में उत्तर की ओर गंगा-किनारे एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है। इसका तना और प्रशाखाएं कोई बीघे-भर भूमि में फैली हुई हैं। बीचबीच में जो बरोहैं लटककर जमीन में पा लगी हैं वे उसके लिए थूनी का काम देती हैं। इसके दक्षिण में एक छोटी-सी फूस की कुटिया थी, अब उसकी जगह पक्का ईंटों का घर बन गया है। उसी कुटिया के आगे एक ब्राह्मण चुपचाप कहीं सें आकर बैठ गया था। तेजस्वी और गम्भीर था, वह न किसी से कुछ बोलता था, न किसी ओर देखता था। वह शान्त मुद्रा में चुपचाप बैठा मन्दिर की प्रतिष्ठा के समारोह की धूमधाम देख रहा था। हजारों नर-नारियों की भीड़ उस समय मन्दिर में भरी थी। ब्रह्मभोज हो रहा था। भांति-भांति के पकवान ढेर के ढेर तैयार होते और भण्डार से बाहर आते जा रहे थे। बड़े-बड़े चोटीवाले ब्राह्मण भोजन करके पेट पर हाथ फेरते और मुहर दक्षिणा में लेते जा रहे थे। परन्तु यह ब्राह्मण चुपचाप सबको देख रहा था। उसने यहां भोजन भी ग्रहण नहीं किया था।

एक और बारह बरस का बालक उस दिन बड़ी दौड़-धूप कर रहा था। उसका निवास इसी कुटिया में था। वह बारम्बार.वहां पाता और तेजी से चला जाता। उस बालक की प्राकृति और रूप-रंग तो साधारण था, पर उसके व्यवहार में बड़ा आकर्षण था। जब-जब वह बालक उधर से गुज़रता या कुटिया में माताजाता तो यह ब्राह्मण बड़े ध्यान से उसको देखता, पर बालक इतना व्यस्त था और उसकी चेतना कुछ ऐसी तल्लीन थी कि उसका इस बात पर ध्यान ही नहीं गया कि कोई आगन्तुक यहां बैठा है। ब्राह्मण ने भी उसे टोका नहीं। पर वह बड़े ध्यान से उसे देख रहा था।

दोपहर ढल गई और अतिथियों की भीड़-भाड़ छंट गई। बालक की व्यस्तता कुछ कम हुई तो कुटी की ओर पाते हुए उसका ध्यान इस ब्राह्मण पर गया। बालक ने ब्राह्मण के पास आकर कहा:

'आप कौन हैं?'

'एक अभ्यागत अतिथि।

'क्या आप ब्राह्मण हैं?'