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रानी रासमणि
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ब्राह्मण राज़ी न हुआ। बड़ी कठिनाई से अपनी पदवृद्धि की प्राशा से रानी की कचहरी के कारकुन महेशचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने बड़े भाई क्षेत्रनाथ को राधागोविन्द की मूर्ति का पुजारी नियत किया, किन्तु काली की पूजा करने के लिए पुजारी नहीं मिला। परन्तु अब ब्राह्मणों की भर्ती का मार्ग खुल गया था। झामापुकुर की पाठशाला के अध्यापक रामकुमार भट्टाचार्य महेशचन्द्र के परिचित थे, उनमें परस्पर कुछ गांव का रिश्ता भी था। भट्टाचार्य शाक्त थे, और उन्होंने कभी-कभी चोरी-छिपे कलकत्ता के कायस्थों के यहां पुजारी का काम किया भी था। परन्तु भरोसा न था कि वह शूद्रारानी के यहां आकर भी काम स्वीकार कर लेंगे। फिर भी महेशचन्द्र के कहने से रानी ने बड़ी दीनता से रामकुमार के पास, पत्र द्वारा प्रार्थना की कि-जगन्माता की प्रतिष्ठा का कार्य आपकी ही दी हुई व्यवस्था के अनुसार हो रहा है, सारी तैयारी हो चुकी है। राधागोविन्द की पूजा के लिए पुजारी मिल चुका है परन्तु काली की पूजा के लिए ब्राह्मण नहीं मिल रहा है। इसलिए आप इस कार्य में सहायता करें।

महेशचन्द्र ने रानी का पत्र रामकुमार को देकर और समझा-बुझाकर तथा लोभ-लालच से वश करके अन्त में उन्हें इस बात पर राजी कर लिया कि जब तक दूसरा उपयुक्त ब्राह्मण न मिले, तब तक काली के पुजारी-पद का भार वे ही ग्रहण करें। अन्ततः राज़ी होकर वे दक्षिणेश्वर चले आए। रामकुमार भट्टाचार्य की असम्भावित कृपा से रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई और फिर बड़ी धूम-धाम से जगदम्बा काली की प्रतिष्ठा की गई। बड़े भारी दान, भोज का आयोजन हुआ। कन्नौज, काशी, सिलहट, उड़ीसा आदि दूर-दूर से पण्डित लोग उस उत्सव में निमन्त्रित हुए। उन सबको रेशमी धोती, दुपट्टा और एक-एक मोहर बिदाई में मिली। अनगिनत अतिथि-अभ्यागत और दीन-दुखी जनों को रानी ने मुक्तहस्त दान दिया। मन्दिर बनवाने और प्रतिष्ठा कराने में रानी ने ६ लाख रुपया खर्च किया और दो लाख छब्बीस हज़ार में त्रैलोक्यनाथ ठाकुर से उनका दीनाजपुर जिले का इलाका खरीदकर राग-भोग के लिए मन्दिर को दे दिया।

मन्दिर की प्रतिष्ठा होने से प्रथम ही रानी विधि से कठोर तपस्या करने लग गई थीं। वे तीन वार स्नान करतीं, हविष्य भोजन करती, भूमि पर सोतीं, और हर समय जप-पूजन करती रहती थीं। परन्तु कैसी अद्भुत बात थी कि इस धर्मभीरु, चरित्रवती रानी का शूद्रत्व तनिक भी कम न होता था। शूद्रा थीं, अछूत