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सुलह
२३९
 

वह अभागा पिता, जिसने कभी हंस-हंसकर गोद में खिलाया था, आंखों में आंसू भरे, दोनों हाथ फैलाए, अपनी पत्नी के आगे करुणा की भीख मांग रहा था। कानून चुप था। जज चुप था। वकील चुप थे। पिता और पुत्र हाथ फैलाए एकदूसरे की छाती से लगने को छटपटा रहे थे। स्त्री अदालत में अपने अधिकारों के लिए लड़ने को आमादा थी। पत्नी आत्मसम्मान की आग से दहक रही थी, पर मां विगलित हो रही थी। उस कानूनी वातावरण के भरे कमरे में, उस एक स्त्री के शरीर में जो यह त्रिवेणी-संगम हो रहा था, उसे देखनेवाला कोई न था। मां की आत्मा ने स्त्री और पत्नी की मूर्ति को परास्त कर दिया। उसने छिपी नजर से पति की ओर देखा। ऐसी करुणा की मूर्ति उसने पहले नहीं देखी थी। उसकी आंखों की ज्वाला बुझ गई। पत्नी की प्रात्मा ने प्यार बखेरना प्रारम्भ कर दिया। उसकी आंखों में मोती सज गए। और देखते-देखते ही वे झर-झर झरने लगे। गोद की पकड़ उसकी ढीली पड़ गई। और जैसे चुम्बक से खिंचकर लोहा चिपक जाता है, उसी प्रकार वह शिशु पिता की गोद में जाकर चिपट गया।

बालक ने कहा-पापा!

पिता ने कहा-बेटा!

'तुम कहां चले गए थे पापा।'

'बेटा, मैं काम से गया था।

'अब मुझे छोड़कर मत जाना पापा।'

'नहीं जाऊंगा बेटा।'

'ममी रो रही हैं पापा। उन्हें प्यार करो।'

'बेटा, ममी मुझसे गुस्सा हो गई है।'

'तुम ममी को प्यार करो पापा, वे हंस पड़ेंगी।'

बालक ने माता की ओर अपने नन्हे हाथ पसार दिए। पिता ने एक कदम बढ़ाया; और वह मां के पास आ खड़ा हुआ। बालक ने एक हाथ मां के गले में डाला और दूसरा पिता के गले में। उसने मां का मुख चूम लिया, और कहा पापा! तुम ममी को प्यार करो।

डरते-डरते पति ने पत्नी का चुम्बन किया, और बालक खिलखिलाकर हंस पड़ा। पत्नी ने भरी हुई आंखों से पति की ओर ताका, उनकी आंखों में अनुनय और प्यार छलछला रहा था। पत्नी के होंठों में मुस्कान फैल गई। और तभी