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सुलह
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बसी हैं, मैं वहां का वातावरण देखने एक दिन जा पहुंचा। इस इमारत का एक ऐतिहासिक महत्त्व भी है, जिसे बहुत कम आदमी जानते हैं। वह यह कि सत्तावन के विद्रोह के बाद जब दिल्ली को अंग्रेजों ने दखल किया, तो उनकी पहली सरकार इसी इमारत में स्थापित हुई थी। यहीं किसी कमरे में बैठकर हडसन साहब ने नवावों और शाही खानदान के सैकड़ोआदमियों को फांसी पर चढ़ाने के प्राज्ञापत्र जारी किए थे। खयाल कीजिए, जब 'फव्वारे' पर, दूर तक फांसियों पर लोग लटक रहे थे, तब, इस इमारत के भीतर क्या हो रहा है, यह जानने को लोग कितनी भयपूर्ण कल्पनाएं करते होंगे। अब न रहे वे दिन, और न वे अंग्रेज। अब तो ठेठ स्वदेशी राज्य है। फिर कचहरी, जहां भीतर-बाहर हर जगह जाने का सभी को अधिकार है, वहां पहुंच गई। क्या समय का फेर है! मनुष्य की भांति, स्थान के भी भाग्य होते हैं! सो मैं, एक दिन, इस ऐतिहासिक इमारत के भाग्य-परिवर्तन को देखने वहां जा पहुंचा।

फाटक में घुसते ही ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे शांत वातावरण में आंधी आ गई हो। भोले-भाले स्वस्थ छात्रों के प्यार-भरे चेहरों के स्थान पर, उठाईगीर जैसी मतलब-भरी आंखें लिए सूटो में लिपटे हुए वकील अपने शिकार की तलाश में इधर-उधर घूम रहे थे। बढ़िया सूटों में से झांकते हुए उनके वीरान और मनइस चेहरे मतलब और मक्कारी की हंसी हंस रहे थे। उस हंसी का मतलब यह था, लड़ो भाइयों, हम तुम्हारी मदद करेंगे। तुम अपनी जेब की जमाजथा हमारे हवाले कर दो।-सब किस्म के आदमी, आबाल-वृद्ध, परेशान-से इधर से उधर घूम रहे थे। जैसे इनकी गांठ का सब कुछ यहीं खो गया है। देखता-भालता मैं पीछे के कक्ष में जा पहुंचा। बहुत बार, भावुक तरुणों ने मेरा वहां सत्कार किया था। साहित्य-चर्चा हुई थी, चाय-रसगुल्ले खाए थे। बूढ़ों और तरुणों ने मिलकर शुभ हास्य बखेरा था। परन्तु आज का वातावरण तो कुछ और ही था। एक जजसाहब ऐसी रूखी और उदासीन मुख-मुद्रा बनाए ऊंची कुर्सी पर बैठे थे, जैसे उनके चारों ओर खड़े मनुष्यों से उनका कोई सम्पर्क ही नहीं है; और, जैसे वे सब कीड़ेमकोड़े हैं; केवल एक ही महाशय भलेमानुस हैं।

कोर्ट में एक दिलचस्प मुकदमा पेश था। मुकदमा पति-पत्नी के बीच था। दम्पति शायद ईसाई थे—दोनों तरुण। पत्नी की आयु कोई पचीस वर्ष की होगी।