रहते हैं।'
'विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।'
'किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार व्यवधान मत बनिए।'
'अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?'
'मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, विनय करताहूं। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलाएं, और आपके पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शान्त छोटासा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हमलोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिन-भर मेहनत करते हैं-घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष हैं, आकांक्षाएं हैं, प्रतिक्रिया है, और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घड़दौड़ में न घसीटिएगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।'
'अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?'
'जी नहीं, मैं चाहता हूं कि आप भामादेवी को यहां बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।'
'यह नहीं हो सकता।' 'यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!'
'आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाए?...
'चपरासी....ओ चपरासी!'
देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हंसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला: