'तो क्या मैं समझू, यह भीरुता, यह कमज़ोरी तुममें अभी बनी ही रहेगी?'
'परश्रीमतीजी...'
'पर-वर कुछ नहीं। हरिया तुम्हारे साथ रहेगा। वह तुम्हारे कामों में खूब चंट है। सिर्फ हथलपक है, जो माल बेचता है या खरीदता है, अपनी मुट्ठी भी गर्म करता है। अब तुम्हारी निगरानी में वह ऐसा नहीं कर सकेगा।'
पर मैं काम कुछ जानती नहीं हूं श्रीमतीजी! कहीं कोई भूल-चूक हो गई तो...
'तो क्या हुआ, भूल-चूक भी इंसान से ही होती है। फिर सब काम करने ही से तो आते हैं, कोई पेट से तो सब सीखकर पैदा नहीं होता।'
'तब ठीक है श्रीमतीजी, अब मेरे खाने-पीने का क्या होगा?'
'तुम्हें बीस रुपया माहवार मिलेगा। रहने को मकान स्कूल ही में मिलेगा। काम सीख लेने पर और कुछ, और पढ़-लिख जाने पर और अधिक तनखाह मिलेगी।'
भामा जब अपने नये घर में आई, तो उसका मन बैठ रहा था। उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ रहा था। बीस रुपये की नौकरी, दिन-भर की गुलामी, फिर बाज़ार में माल बेचना। छी, छी! मैं कैसे उन लोगों से पार पाऊंगी?
घर को उसने देखा-उसके अपने घर की एक कोठरी से भी बदतर। एक साधारण-सी कठोरी, गन्दी और सूनी। बराबर की कोठरी में चपरासी हरिया रहता था। उसकी पीकर फेंकी हुई अधजली वीड़ियां बिखरी पड़ी थीं। झाड़ महीनों से नहीं लगी थी। एक टूटी खाट और पुराना घड़ा पानी से भरा, एक कोने में रखा था।
यह सब देखकर उसे अपना घर, गरीब पर साफ-सुथरा, छोटी-सी बिटिया प्रभा और सदा शान्त-शिष्ट रहनेवाले पति की याद आने लगी। पर उसने दृढ़तापूर्वक आगे कदम बढ़ाने की ठान ली। कोठरी उसने झाड़-बुहारकर ठीक कर ली। हरिया से उसने कहा:
'लेकिन चारपाई, बिछौना, सामान? मेरे पास तो कुछ नहीं है।'
'आज-भर मेरी चारपाई ले लो, पैसे हों तो दो, मैं सामान ला दूं। कल बन्दोबस्त कर लेना।