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मास्टर साहब
 

धारण स्त्री-विद्रोह पर पूरा-पूरा विचार कर लिया है?क्या वह जानती है कि इस मार्ग पर जाने से उसपर क्या-क्या ज़िम्मेदारियां आएंगी? मैं तो उसे जानता हूं, वह कमज़ोर दिमाग की स्त्री है, एक असहनशील पत्नी है, एक निर्मम मां है। वह इन सब बातों को समझ ही नहीं सकती। परन्तु वह यह खत लिख कैसे सकी? घर त्यागने का साहस उसमें हो सकता है, यह उसकी दिमागी कमजोरी और असहनशीलतापूर्ण हृदय का परिणाम है; परन्तु उसके कारण इतने उच्च, इतने विशाल, इतने क्रांतिमय हैं, यह भामा समझ नहीं सकती। वह सिर्फ भरी गई है, भुलावे में आई है। ईश्वर करे, उसे सुबुद्धि प्राप्त हो, वह लौट पाए-मेरे पास नहीं, मैं जानता हूं, मैं अच्छा पति नहीं, मैं उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता। मेरी क्षुद्र आमदनी उसके लिए काफी नहीं है। फिर भी प्रभा के लिए लौट ही आना चाहिए उसे। पता नहीं कहां गई, पर उसे तलाश करना होगा। उसके गुस्से को इतना सहा है, और भी सहना होगा। और उसने समझा हो या न समझा हो, उसका यह कहना तो सही है ही कि मुझे उसे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार ही नहीं है।

क्षण-भर के लिए मास्टर स्तब्ध बैठे रहे। उनकी तनखाह के गोल-गोल चालीस रुपये झल-झल करके उनके कानों में चालीस की गिनती कर गुम-गुम होने लगे और उनकी दरिद्रता, असहाय गृहस्थी विद्रूप कर ही-ही करके उनका उपहास करने लगी।

'मैं आज उस गुलामी की बेड़ियों को तोड़ आई हूं श्रीमतीजी।'

'शाबाश, तुम्हारे साहस की जितनी तारीफ की जाए, थोड़ी है। मैं समझती हूं कि अब तुम अधिक आज़ादी से अपनी बहिनों और अपने देश की सेवा कर सकती हो।'

'आप जो कहें, वही मैं करूंगी।'

'मैं चाहती हूं, अभी तुम हमारे स्कूल में काम करो। सिर्फ सब सामान की फेहरिस्त रखना, चीज़ों को संभालना और तैयार माल को बाजार में बेचना-यही काम तुम्हें करना होगा।'

'और सब तो ठीक है, पर बाजार में बेचना, यह मुझसे कैसे होगा? मैं तो कभी बाज़ार जाती नहीं, लोगों से बात करती नहीं।'