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मास्टर साहब
 

'पर तुम ज़रा बच्ची के पास तो जानो।'

'भाड़ में जाए बच्ची, मुझे ज़रा सोने दो, मेरी तबियत ठीक नहीं है।'

'यह तुम क्या कह रही हो प्रभा की मां!'

'तुम उसे नहीं समझ सकोगे। स्कूल की किताबों में वह वात नहीं लिखी।'

मास्टर साहब के शरीर का सम्पूर्ण रक्त उनके मस्तिष्क में भर गया। जीवन में पहली बार असह्य क्रोध की लहर पाई। उन्होंने आपे से बाहर होकर किन्तु धीमे स्वर में कहा-तुम ऐसी हृदयहीन हो, प्रभा की मां!-उन्होंने थूक सटका और चले गए।

सुबह बड़ी देर तक भी जब भामा अपनी कोठरी से बाहर नहीं आई तब मास्टर साहब, रात-भर की जागी हुई, फूली हुई, सुर्ख आंखों की कोर में वेदना और उदासी भरे, प्रभात की वेला में झपकी लेती, क्लांत बच्ची को चुपके से छोड़कर फिर पत्नी की कोठरी में गए। रात के गुस्से को भूलकर उन्होंने पुकारा-

प्रभा की मां, उठो तो तनिक, दिन बहुत चढ़ गया है। पर दूसरे ही क्षण उन्होंने देखा, कोठरी का द्वार खुला है और भामा वहां नहीं है, कोठरी सूनी है, विछौना खाली है। भीतर जाकर देखा, एक पुर्जा लिखा रखा था। उसमें लिखा था:

'मेरी आंखें खुल गई हैं, मैं अपने अधिकार को जान गई हूं। मैं भी आदमी हूं, जैसे तुम मर्द लोग हो, और मुझे भी मर्दो ही की भांति स्वतन्त्र रहने का अधिकार है। मैं तुम्हारे लिए गृहस्थी की गुलामी करने से इन्कार करती हूं। तुम्हारे लिए बच्चे पैदा करने, उनके मल-मूत्र उठाने, तुम्हारे सामने हाथ पसारने से इन्कार करती हूं। मैं जाती हूं और कहे जाती हूं कि तुम्हें मुझे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं। तुम्हारी चालीस रुपये की हैसियत में मैं अपने को भागीदार नहीं बना सकती।'

मास्टर साहब की आंखें फट गईं, मुंह फैला रह गया। वे वहीं चारपाई पर बैठकर दो-तीन बार उस पत्र को पढ़ गए। और सब बातों को भूलकर वे यही सोचने लगे-आखिर भामा यह सब लिख कैसे सकी? बिलकुल ग्रामोफोन की सी भाषा है, व्याख्यान के नपे-तुले शब्द, साफ-तीखी युक्ति, सुगठित भाषा। ऐसा तो वे भी नहीं लिख सकते। भामा यह सब कहां से सीख गई? क्या उसने सत्य ही उन सब गम्भीर बातों पर, स्त्री-स्वातन्त्र्य पर, सामाजिक जीवन के इस असा-