जीवन से सम्पूर्ण विद्रोह करनेवाली। वह बात-बात पर पति से झगड़ा करने लगी, प्रभा को अकारण ही पीटने लगी। तनिक-सी भी वात मन के विपरीत होने पर तिनककर घर से चली जाती और दो-दो दिन गायब रहती। उसकी बहुत-सी सखी-सहेलियां हो गई थीं, बहुत-से अड्डे वन गए थे, जिनमें स्कूलों की मास्टरनियां, अध्यापिकाएं, विधवाएं, प्रौढ़ाएं और स्वतन्त्र जीवन का रस लेनेवाली अन्य अनेक प्रकार की स्त्रियां थीं। उनमें से प्रायः सवोंने स्त्रियों के उद्धार का व्रत ले रखा था।
इन सब बातों से अन्ततः एक दिन मास्टर साहब का समुद्र-सा गम्भीर हृदय भी विचलित हो गया। पत्नी के प्रति उत्पन्न रोष को वे यत्न करके भी न दबा सके। प्रभा दो दिन से ज्वर में बेहोश थी, और भामा दो दिन से गायब थी-किसी कार्यवश नहीं, क्रुद्ध होकर। प्रभा ने अम्मा-अम्मा की रट लगा रखी थी। उसके होंठ सूख रहे थे, बदन तप रहा था। मास्टर साहब स्कूल नहीं जा सके थे। ट्यूशन भी नहीं, खाना भी नहीं, वे पुत्री के पास बैठे पानी से उसके होंठों को तर करते, 'अम्मा आ रही हैं' कहकर धीरज देते, फिर एक गहरी सांस के साथ हृदय के दुःख को बाहर फेंकते और अपने दांतों से होंठ दवा लेते और भामा के प्रति उत्पन्न क्रोध को दबाने की चेष्टा करते।
भामा आई तो उसने न रुग्ण पुत्री की ओर देखा, न भूख-प्यास से जर्जर चतित पति को। वह भरी हुई जाकर अपनी कोठरी में द्वार बन्द करके पड़ गई।
अन्त में मास्टर साहब ने कोठरी के द्वार पर जाकर कहा-प्रभा को बहुत तेज़ ज्वर है प्रभा की मां, तनिक आओ तो।
'मैं क्या वैद्य-डाक्टर हूं?' भीतर से भामा ने कहा।
'नहीं, वह तुम्हें बहुत याद कर रही है, तनिक उसके पास बैठो।'
'तुम बैठे तो हो।'
'वह तुम्हें पुकार रही है, आओ।'
'मैं थक रही हूं, मेरी जान मत खाओ।'
'कैसी बात कहती हो प्रभा की मां, वह तुम्हारी बेटी है।'
'तुम्हारी भी तो है।'
'बच्चों की देखभाल तो मां ही कर सकती है, प्रभा की मां?'
'पर बच्चे मां के नहीं, बाप के हैं। उन्हें ही उनकी संभाल करनी चाहिए।'