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मास्टर साहब
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असंतुष्ट रहने लगी। पति की क्षुद्र आय का अब सबसे बड़ा भाग उसकी साड़ियों में, चन्दों में, तांगे के भाड़े में और मित्र-मित्राणिों के चाय-पानी में खर्च होने लगा। मास्टर साहब को मित्रों से ऋण लेना पड़ा। ऋण मास-मास बढ़ने लगा और फिर भी खर्च की व्यवस्था बनी नहीं। दूध आना बन्द हो गया, घी की मात्रा कम हो गई, सांग-सब्जी में किफायत होने लगी। मास्टरजी के कपड़े फट गए, उन्होंने और एक ट्यूशन कर ली। वे रात-दिन पिसने लगे। छोटी-सी बच्ची चुपचाप अकेली घर में बैठी पिता और माता के आगमन की प्रतीक्षा करने की अभ्यस्त हो गई। बहुधा वह वहुत रात तक, सन्नाटे के पालम में, अकेली घर में डरी हुई, सहमी हुई, बैठी रहती-कभी रोती, कभी रोती-रोती सो जाती; बहुधा भूखी-प्यासी।

एक दिन जब मास्टर साहब स्कूल की तैयारी में थे, भामा ने कहा-सुनते हो, मुझे एक नई खद्दर की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने स्वयंसेविकाओं में नाम लिखाया है।

'किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में।'

भामा गरज पड़ी-अगले महीने में या अगले साल में। आखिर क्या मैं भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं। ब्याही आई हूं, बांदी नहीं।

'सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो।'

'मुझे तुम्हारे कर्मों से क्या मतलब? कमाना मर्दो का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?'

'नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी...।'

'भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।'

'तो बन्दोवस्त करूंगा।' मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता संभालकर चुपचाप चल दिए।

जलसे में भामा एक सप्ताह व्यस्त रही। वह घर न आ सकी। आठ दिन बाद जब वह आई तो उसके रंग-ढंग ही बदले हुए थे। उसमें लीडरी की बू आ गई थी। अब वह एक बच्ची की मां, एक पति की पत्नी, एक घर की गृहिणी नहीं-एक आधुनिकतम महिला-उद्धारक स्त्री थी। पुरुषों से, गृहस्थी की रूढ़ियों से, दरिद्र