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मास्टर साहब

एक कर्कशा नारी के हृदय-परिवर्तन की मार्मिक कहानी।

भामा भरी बैठी थी। मास्टर साहब ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा—यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलनेवालियां आएंगी, बहुत-कुछ बन्दोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर ली।

'पर लाचारी थी प्रभा की मां, देर हो ही गई।'

'कैसे हो गई? मैं कहती हूं, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो? इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आँखों भी नहीं सुहाती?'

'यह बात नहीं है प्रभा की मां, तनखाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इन्स्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था। तीसरे कुछ आफिस का काम भी हेडमास्टर साहब ने बता दिया। करना पड़ा। फिर आज तनखाह मिलने का दिन नहीं था—कहने-सुनने से हेडमास्टर ने बन्दोबस्त किया।'

'सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफत है। मैं पूछती हूं, देर क्यों कर दी—आप लगे आल्हा गाने। देखूं रुपये कहां हैं।'

मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसकी जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट ज़मीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर भामा ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा—चालीस ही हैं, बस?

'चालीस ही पाता हूं, ज्यादा कहां से मिलते?'

'अब इन चालीस में क्या करूं? ओढ़ूँ या बिछाऊं? कहती हूं, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम की भी तो ऊपर की आमदनी नहीं है! तुम्हारे ही मिलनेवाले तो हैं वे बाबू दाताराम—रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-

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