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शेरा भील
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जंगल ही से चलती थी। शहद, लकड़ी, मोम, पत्ते, टोकरी आदि बेचकर वे काम चलाते थे। समय पाने पर लूटमार भी करते थे। वे अरावली की तराई में लम्बी-लम्बी और अगम्य घाटियों में अपनी बस्तियां बसाए रहते थे। वे ऐसे अगम्य स्थल थे कि अजनबी आदमी का एकाएक वहां पहुंचना असंभव ही था। इसीलिए महाराणा ने उनके कुछ गांवों को जहां-तहां रहने दिया था। उनसे महाराणा को बहुत सहायता मिलती थी। वे प्रकट में अत्यन्त जंगली भाव से रहते थे। वे बड़े निर्भय वीर थे। उनके पैने, विषैले बाणों का एक हलका-सा घाव भी प्राणांतक होता था। परन्तु वे बाहर से जैसे असभ्य थे, वैसे भीतर से नहीं। वे अपने सरदार के अनन्य भक्त थे, उनमें अपना निजी संगठन था। वे अपने को राणा के कृत दास समझते थे। वे निर्भय होकर बन-पशुओं का शिकार करते थे, खाते थे, और फिर दिन-दिन-भर खोते में लड़ना उनका सबसे ज़रूरी काम था।

वे इस बात की ताक में सदैव रहते थे कि धावा मारें, और मुगल छावनी को लूट लें। बहुधा वे ऐसा करते भी थे। मुगल सरदार उनसे बहुत दुखी थे। वे उनका कुछ भी न बिगाड़ सकते थे, और उनसे वे सदैव चौकन्ने रहते थे। कभी तो वे रात को एकाएक मुगल छावनी पर धावा मारते और किसान जैसे खेत काटता है, उसी भांति मार-काट करके भाग जाते थे। वे इस सफाई से भागते और ऐसी चालाकी से जंगलों में छिप जाते कि मुगल-सिपाही चेष्टा करके भी उन्हें न ढूंढ़ पाते थे।

उनके सरदार की शक्ल भेड़िये के समान थी। सब लोग उसे भेड़िया ही कहते थे। उसमें असाधारण बल था। सब दलों के सरदार उसका लोहा मानते थे। उसने युद्ध में सैकड़ों आदमी मार डाले थे, और सबकी खोपड़ियां ला-लाकर खूटी पर टांग रखी थीं।

सर्दी के दिन थे, रात का सुहावना समय। वे आग के चारों तरफ बैठे तंबाकू पी रहे थे। उनके काले और चमकीले नंगे शरीर आग की लाल रोशनी में चमक रहे थे। एक राजपूत सिपाही ने आकर, धरती पर भाला टेककर भील सरदार का अभिवादन किया। भील सरदार ने खड़े होकर राजपूत से संदेश पूछा। तुरन्त ढोल पीटे गए। और, क्षण-भर में दो हज़ार भील अपने-अपने भालों को लेकर आ जुटे।

सैनिक राजपूत ने उच्च स्वर से पुकारकर कहा-भील सरदारो! राणा