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कहानी खत्म हो गई
 


की ओर देखा। मिसेज़ शर्मा घबरा गईं। उन्होंने कहा-आपकी तबियत तो एकदम बहुत खराब हो गई है, चौधरी साहब।

'नहीं, मैं ठीक हूं।' कुन्छ 'प्रकृतिस्थ होते हुए मैंने कहा। मेजर वर्मा चुपचाप कुर्सी पर बैठकर मेरी ओर ताकते रहे। मरे हुए स्वर में मैंने कहा--मेजर, सारी बातें मैं न बता सकूँगा। आप और ये सब सज्जन मुझे क्षमा करें।

डिलीवरी की खटपट में मैं फंस गया। सुषमा बहुत बीमार हो गई थी। उसे मसूरी ले जाना पड़ा। पुत्र-जन्म का उत्सव धूम-धाम, शोर-गुल, बाजे-गाजे से हुआ, ये सब बातें क्या कहूं। चार-पांच महीने इन सब बातों को बीत गए।

एक दिन शाम को जब मैं घूमकर लौट रहा था, गांव की जनशून्य राह पर मैंने देखा: चादर में लिपटा हा कोई खड़ा है। वही थी। और मेरी ही प्रतीक्षा में खड़ी थी। निकट पहुंचने पर उसने कहा-बड़ी देर से खड़ी हूं जरा उधर चलिए, मुझे आपसे कुछ कहना है।

सच पूछिए तो मैं अब उससे सचमुच ही कतराने लगा था। वह नशा तो काफूर हो चुका था। और इधर महीनों से उससे मुलाकात ही नहीं हुई थी। मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी कि मुझे एकान्त में उससे बात करते कोई देख ले। पर मैं उसका अनुरोध न टाल सका। मैंने कहा-क्या बहुत जरूरी बात है?

उसकी आंखें भर आई। उसने धीरे से कहा--जी हां।

और जब हम रास्ते से हटकर उस बड़े बरगद की छांह में गए तब चारों ओर अंधेरा फैल चुका था। उसने एक ही वाक्य में वह बात कह दी। सुनकर मैं ठण्डा पड़ गया। मेरे मुंह से बात न निकली।

बहुत देर वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करती रही। फिर उसने धीरे से कहा आपको मैं न किसी झंझट में डालना चाहती हूं, न आप पर मैं कोई बोझ लादना चाहती हूं। सब कुछ मैं स्वयं भुगत लूंगी। परन्तु पिताजी का देहांत हो चुका। मेरा अब पृथ्वी पर कोई नहीं है। आप गांव के राजा हैं; रियाया के माई-बाप हैं। मैं और किसी अधिकार की बात नहीं कहती, किसी बदनामी के भय से आप डरें नहीं। मर जाऊंगी, पर आपका नाम न लूंगी। परन्तु, मैं औरत हूं, असहाय हूं। मेरा कोई हमदर्द नहीं, आप ही अब मुझे राह बताइए।

मैं शर्म से गड़ा जा रहा था। समझ रहा था कि यह औरत मुझे कितना कायर