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सिंहगढ़-विजय
 

'महाराज की क्या आज्ञा है?'

'भवानी का आदेश अवश्य पूरा होना चाहिए। उस स्थान को खुदवाओ।'

तत्काल चार बेलदारों ने खोदना प्रारम्भ किया। देखते-देखते बड़ा भारी गहरा गड्ढा हो गया। मिट्टी का ढेर लग गया। तानाजी ने ऊबकर कहा-महाराज, अब केवल एक पहर रात्रि रही है।

'ठहरो, क्या नीचे मिट्टी ही मिट्टी है?

भीतर से एक बेलदार ने चिल्लाकर कहा-महाराज! पत्थर पर कुदाल लगी है।

महाराज ने व्यग्र स्वर में कहा--सावधानी से खोदो।

'महाराज की जय हो! नीचे पटिया है। उसमें एक लोहे का भारी कुण्डा है।

'उसे बलपूर्वक उखाड़ लो।'

'महाराज, नीचे सीढ़ियां प्रतीत होती हैं। प्रकाश आना चाहिए।'

प्रकाश पाया। तानाजी नंगी तलवार लेकर गड्ढे में कूद गए। दो और भी वीर कूद गए। महाराज विकलता से खड़े गंभीर प्रतीक्षा करते रहे।

तानाजी ने बाहर आकर वस्त्रों की धूल झाड़ते हुए अपनी तलवार ऊंची की। और फिर तीन बार खूब ज़ोर से कहा-छत्रपति महाराज शिवाजी की जय! निकट खड़ी सेना प्रलय-गर्जन की भांति चिल्ला उठी-छत्रपति महाराज की जय!

इसके बाद तानाजी महाराज के निकट खड़े हो गए।

महाराज ने पूछा-भीतर क्या है?

'भवानी का प्रसाद है।'

'कितना है?'

'चालीस देगें मुहरों की भरी रखी हैं। चांदी के सिक्के भी इतने ही हैं। एक चांदी की संदूकची में बहुत-से रत्न हैं।'

महाराज एक बार प्रकंपित वाणी से चिल्ला उठे---जय भवानी माता की!

एक बार फिर वज्र-गर्जन हुआ। इसके बाद महाराज ने तानाजी को आदेश दिया-सेना को विश्राम की आज्ञा दी जाए। और सब खज़ाना सुरक्षित रूप से निकालकर तोशाखाने में दाखिल कर दिया जाए।