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कहानी खत्म हो गई
१९
 


'चुडैल कहीं की। धुत्! धुत्!

सुषमा ने कहा-जाओ, ज़रा घूम आयो, तबियत ठीक हो जाएगी। खाओगे क्या, मिसरानी से कह दो।

मैंने कहा-सुषमा, आज तो मैं तुम्हारे साथ ही खाऊंगा! जो चाहे बनवा लो। लेकिन, उठना नहीं, तुम्हें ज्वर है। जरा शरीर का ध्यान रखो।

स्त्रियां कितनी भावुक और कोमल होती हैं। मेरी इतनी ही सी बात पर सुषमा गद्गद हो गई। और मैं अपने को तीसमारखां समझने लगा था। अपनी समझ में तो मैंने मन का सारा ही मैल धो डाला था। अब तो दिल में कहीं किसी कोने में भी न वह हंसी थी, न चितवन। इसे कहते हैं मार पर विजय। मदनदहन शिव ने इसी भांति किया था। बुद्ध ने भी मार पर इसी भांति विजय पाई थी।

मैं कपड़े बदलकर ज्योंही सीढ़ियों से उतरा, देखता क्या हूं, वह सुषमा के 'लिए एक कटोरा दूध लेकर उसके कमरे में जा रही है। मैंने मन में कहा, इसकी ओर देखना ही न चाहिए।--मैं आंखें नीची किए दस कदम बढ़ गया। वह भी उसी 'भांति आंखें नीची किए आगे बढ़ गई। लेकिन न जाने क्यों मैंने ठिठकर मुंह फेरकर उसकी ओर देखा! छी, छी, वह भी मुंह फेरकर मेरी ओर देख रही थी। मुझे उचटकर देखते देख वह चल दी। गुस्से से मेरा शरीर कांपने लगा, और मैं तीर की भांति वहां से बाहर निकल गया।

कमांडर भारद्वाज ज़ब्त न कर सके। ठठाकर हंस पड़े। बोले--यह गुस्सा किसपर था, उसपर या अपने पर?

क्षण-भर को सभी के चेहरों पर मुस्कान दौड़ गई। पर मिसेज़ शर्मा बहुत गम्भीर थीं। मेरे ऊपर घड़ों पानी गिर गया। मेरी वाणी रुक गई। बहुत देर तक कोई न बोला।

मेजर वर्मा एकाएक बहुत उत्तेजित हो उठे। वे कुर्सी से उछलकर खड़े हो गए। हाथ की सिगरेट उन्होंने फेंक दी और तेज़ नज़र से मेरी ओर ताकने लगे। मैं समझ गया, मेजर वर्मा कहानी के दूसरे छोर तक पहुंच चुके हैं। और अक उनके मस्तिष्क में वह तरबूज़

मेरे होंठ नीले पड़ गए। और आंखें पथरा गई। मैंने एक असहाय मूक पशु की भांति, जिसकी गर्दन पर छूरी चलनेवाली हो, करुण-कातर दृष्टि से मेजर वर्मा