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सिंहगढ़-विजय
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कृतज्ञ होऊ?

'छत्रपति हिन्दू-कुल-सूर्य महाराजाधिराज शिवाजी के प्रति।'

धांधूजी ने अव विलम्ब न किया, वे लपककर घोड़े पर चढ़े, और दोनों ‘असाधारण सवार उस अंधकार में विलीन हो गए।

पूना से पश्चिम ओर, विंध्याचल-शृंग के एक दुरूह शिखर पर एक अति 'प्राचीन, शायद बौद्धकालीन गुफा है। उसके निकट घने वृक्षों का झुरमुट है। एक अमृत के समान मीठे पानी का झरना भी है। इसी गुफा के सम्मुख कोई एक तीर के अंतर पर एक विस्तृत मैदान है। उसे खास तौर पर साफ और समतल बनाया गया है।

वहां एक बलिष्ठ युवक बी फेंकने का अभ्यास कर रहा था। युवक गौरवर्ण, सुन्दर, ठिगना और लोहे के समान ठोस था। उसने अपने सुगठित हाथों में बर्जा उठाया और तौलकर एक वृक्ष को लक्ष्य करके फेंका। बर्खा वृक्ष को चीरता हुआ पार निकल गया। गम्भीर स्वर में किसीने कहा-ठीक नहीं हुआ, तुम्हारा लक्ष्य चलित हो गया।

युवक ने माथे का पसीना पोंछकर पीछे फिरकर देखा। एक जटिल संन्यासी तीव्र दृष्टि से युवक को ताक रहे थे। युवक ने सिर झुका लिया। संन्यासी अग्रसर हुए। उन्होंने बर्छ को क्षण-भर तोला, और विद्युत-वेग से फेंक दिया। बर्खा स्थूल वृक्ष को चीरता हुआ क्षण-भर ही में धरती में घुस गया। उत्साहित होकर युवक ने एक ही झटके में बर्खा उखाड़ा, और महावेग से फेंका। इस बार बळ वृक्ष को चीरकर धरती में घुस गया। संन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा-हां, यह कुछ हुआ। वत्स, मैं तो वृद्ध हुआ, युवक-सा पौरुष कहां? हां, तुम अभी और भी स्फूर्ति उत्पन्न करो।

युवक ने गुरु के चरणों में प्रणाम किया, और दोनों ने तलवारें निकाल लीं। प्रथम मंद, फिर वेग और उसके बाद प्रचण्ड गति से दोनों गुरु-शिष्य तलवारें चलाने लगे, मानो बिजलियां टकरा रही हों। दोनों महाप्राण पुरुष पसीने से लथपथ हो गए। श्वास चढ़ गया, परन्तु उनका युद्ध-वेग कम न हुआ। दोनों ही चीते की भांति उछल-उछलकर वार कर रहे थे। तलवारें झनझना रही थीं। गुरु ने ललकारकर कहा-बेटे, लो, एक सच्चा वार तो करो। देखें शत्रु का तुम किस भांति हनन