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सिंहगढ़-विजय
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इसी समय पड़े हुए व्यक्ति ने फिर आर्तनाद किया। महाराज उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही घोड़े से कूद पड़े। उन्होंने धांधूजी को प्रकाश करने का आदेश दिया, और स्वयं मार्ग में पड़े व्यक्ति के सिरहाने घुटनों के बल बैठ गए। उन्होंने उसका सिर गोद में रख लिया, नाड़ी देखी, हृदय का स्पंदन देखा और कहा-जीवित है, पर मालूम होता है, बहुत घाव खाए हैं, रक्त बहुत निकल गया।

धांधूजी ने तब तक चकमक पत्थर से अबरख की बनी चोर-लालटेन जला ली थी। वे उसे घायल के मुख के पास लाए। देखकर कहा-अरे, बड़ा अल्प-वयस्क बालक है!

'परन्तु अंग में अनेक घाव हैं, मालूम होता है वीरतापूर्वक युद्ध किया है।'

मुमूर्षु ने प्रकाश और मनुष्य-मूर्ति को देखा, और जल का संकेत किया। महाराज ने स्वयं उसके मुख में जल डाला। जल पीकर उसने आंखें खोलीं, और क्षीण स्वर में कहा-आप कौन हैं प्राणरक्षक?-और फिर कुछ ठहरकर कहा-आप चाहे जो भी हों, यह प्राण और शरीर आपके हुए। उसके होंठों पर मंद हास्य की रेखा आई।

महाराज ने कहा-धांधूजी, इसका रक्त बन्द होना चाहिए। देखिए, सिर से अब तक रक्त बह रहा है। और, पार्श्व का यह घाव भी भयानक है-इसके बाद दोनों व्यक्तियों ने उसके सभी घाव बांधकर उसे स्वस्थ किया। फिर वे सलाह करने लगे अब इसे कहां ले जाया जाए? समय कम है और हमारा गंतव्य पथ लम्बा।

युवक ने स्वयं कहा-यदि मुझे घोड़े पर बैठा दिया जाए, तो मैं मज़े में चल सकूँगा।

'क्या निकट कोई गांव है?'

'है, पर एक कोस के लगभग है।'

'वहां कोई मित्र है?'

'हैं। वहां मेरी बहिन का घर था, बहनोई हैं।' युवक का स्वर कम्पित था।

महाराज ने कहा-बहिन नहीं है?

'नहीं।' युवक का कंठ अवरुद्ध हुआ। उसके नेत्रों से झरझर आंसू बहर्ने लगे। वह फिर बोला-उसे आज तीसरे पहर विदा कराके घर ले पा रहा था। बह-