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सिंहगढ़-विजय

वीर शिवाजी और उनके सहयोगी तानाजी की वीरता की उत्कृष्ट कहानी। लेखक की यह कहानी बहुत प्रसिद्ध है।

रात बहुत अंधेरी थी। रास्ता पहाड़ी और ऊबड़-खाबड़ था। आकाश पर बदली छाई हुई थी, और अभी कुछ देर पूर्व ज़ोर की वर्षा हो चुकी थी। जव ज़ोर की हवा से वृक्ष और बड़ी-बड़ी घास सांय-सांय करती थी, तब जंगल का सन्नाटा और भी भयानक मालूम होता था।

इस समय उस जंगल में दो घुड़सवार बढ़े चले जा रहे थे। दोनों के घोड़े खूब मज़बूत थे, पर वे पसीने से लथपथ थे। घोड़े पग-पग पर ठोकरें खाते थे, पर उन्हें ऐसे बीहड़ रास्तों में, ऐसे संकट के समय अपने स्वामी को ले जाने का अभ्यास था। सवार भी असाधारण धैर्यवान और वीर पुरुष थे। वे चुपचाप चल रहे थे। घोड़ों की टापों और उनकी प्रगति से कमर में लटकती हुई उनकी तलवारों और बों की खरखराहट उस सन्नाटे के पालम में एक भयपूर्ण रव उत्पन्न करती थी।

हठात् घोड़े ने एक ठोकर खाई, और एक मंद आर्तनाद अग्रगामी सवार के कान में पड़ा। उसने घोड़े की बाग खींचते हुए कहा-धांधूजी?

'महाराज!' पीछेवाला सवार क्षण-भर में अग्रगामी सवार के सन्निकट आ गया, और उसने बिजली की भांति अपनी तलवार खींच ली। अग्रगामी सवार का घोड़ा खड़ा हो गया था। उसने भी तलवार नंगी करके कहा-देखो, क्या है? घोड़े ने ठोकर खाई है, यह आर्तनाद कैसा है?

धांधूजी घोड़े से उतर पड़े, उन्होंने झुककर देखा और कहा-महाराज, एक मनुष्य है।

'क्या घायल है?'

'खून में लथपथ प्रतीत होता है।'

'जीवित है?'