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मेहतर की बेटी का भात
 

दृष्टि से बसाया गया था। दैव-संयोग की वात कि शहादरा के किसी मेहतर की लड़की की उसी दिन शादी हो रही थी और भातई की प्रतीक्षा की जा रही थी। भातई लोग इसी दिशा से आनेवाले थे, जिधर से चौधरी की सवारी आ रही थी। देर काफी हो रही थी, और भातई आ नहीं रहे थे। बिना भात चढ़ाए शादी रुक रही थी। जब चौधरी की सवारी बाजा बजाते शहादरा के सिवाने पर पहुंची तो बेटीवाले मेहतर ने समझा कि भातई आ गए। उसने आगे बढ़कर चौधरी की अगवानी की और आदरपूर्वक डेरा दिया। सन्ध्या के अंधकार में चौधरी भी वास्तविक स्थिति न भांप सके। उन्होंने यही समझा कि कोई बिचारा गरीब आदमी है। हमको बड़ा आदमी समझकर सत्कार करता है। उसका मन अवश्य रखना चाहिए, इस विचार से चौधरी ने मुकाम कर लिया।

परन्तु बहुत देर हो जाने पर भी खाने-पीने की किसीने न पूछी। हकीकत यह है कि कायदे के अनुसार भातई जब तक भात देने की रस्म अदा नहीं कर देते, तब तक उन्हें भोजन नहीं दिया जाता। अब दिल्लगी देखिए कि मेहतर तो सोच रहा है कि भात देने में क्यों देर की जा रही है। भात की रस्म अदा हो जाए तो खाना-पीना हो। और चौधरी समझ रहे हैं—अजब तमाशा है, जब तो इतनी आवभगत से रोका, अब कोई खाने को भी नहीं पूछता।

काफी रात बीत गई और तब तक एकाएक असली भातई लोग आ गए। मेहतर भौंचक रह गया। भातई ये हैं तो वे लोग कौन हैं। और तब उसे ज्ञात हुआ कि वे भातई नहीं, बहादुरपुरा के चौधरी हैं।

मेहतर की फूंक सरक गई। वह हाथ जोड़े आकर चौधरी के कदमों में गिर गया और कहने लगा-माई-बाप, बड़ी चूक हुई, बड़ी बेअदबी हुई। मैंने आपको भातई समझ लिया।

सारी बात सुनकर चौधरी रूपराम खिलखिलाकर हंस पड़े। मेहतर को उठा कर गले से लगा लिया और कहा-बस, अब तो हम तुम्हारे भातई बन ही गए। फिक्र न करो-इतना कहकर मालगुजारी के लिए लाया हुमा सारा रुपया भात में दे दिया। चौधरी रूपराम की दरियादिली और उदारता की यह घटना, जिसने सुनी, दांतों तले उंगली दबाई। सर्वत्र चौधरी की बड़ाई और जयजयकार होने लगा। उस रात चौधरी ने वहीं मुकाम किया।