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प्यार
 

फैल गई।

पूर्व-स्मृतियां दोनों तरफ हृदयों को आन्दोलित कर रही थीं। बादशाह जब युवराज थे, और मेहरुन्निसा नवयुवती थी, तभी दोनों का प्रथम साक्षात्कार हुआ था। उन क्षणों की झांकियां मधुर स्वप्न की भांति दोनों की आंखों में छा जाती थीं।

उस समय सलीम की आयु छब्बीस बरस की थी। उसे युवराज का पद मिल चुका था। एक दिन गयासबेग उसे सादर आमंत्रित कर अपने घर ले गया। युवराज के स्वागत-सत्कार में बहुत-से अमीर-उमरा आए। नाच-गाने हुए। मनो- रंजन की अनेक व्यवस्थाएं की गईं। ठाटदार दावत हुई। जब जश्न खत्म हो गया, और बाहरी मेहमान विदा हो गए, तो एकान्त-कक्ष में शाहज़ादा को ले जाकर बैठाया गया। शराब के जाम पेश किए गए और रस्म के मुताबिक घर की महिलाएं शाहजादे के सामने सलाम करने को हाज़िर हुईं। उस समय मेहरुन्निसा की आयु केवल चौदह बरस की थी। उसने भी नीची आंखें किए उठकर शाहज़ादे के सामने आकर कोर्निश की। सुर्ख-सफेद रंग, ताज़ा काश्मीरी सेब के समान मुख, उज्ज्वल हीरे के समान दमकती आंखें, अर्धविकसित यौवन, फूलों के ढेर के समान शरीर-सम्पत्ति, सांचे में ढला एक-एक अंग, तिसपर लज्जा, भावुकता, सुकुमारता, भोली अल्हड़ता। सलीम ने देखा, आपा खो दिया। वह उसे अपलक देखता ही रह गया। उसने गाया, तो वह सकते के पालम में आ गया। उसने नृत्य किया, तो उसे अपने प्रासन पर बैठे रहना दूभर हो गया। शाहजादे की जलती हुई नज़रें जब उस मुग्धा पर पड़ रही थीं, अकस्मात् ही उसका दुपट्टा हवा के एक झोंके से उड़ गया, और सलीम की आंखों में सौन्दर्य के जादू का समुद्र लहरा उठा। शेष समय वह खामोश बैठा रहा।

चिराग जल गए। शराब के प्याले पेश किए जा रहे थे। और वह चुपचाप पीता जा रहा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे उसकी रगों में खून नहीं, पिघला हुआ सीसा बह रहा हो।

वह प्रेम का घाव खाकर लौटा। खाना, पीना, सोना उसके लिए दूभर हो गया। वह ठंडी सांसें लेता और बेचैनी से करवटें बदलता रहता। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। वह इतनी बड़ी बादशाहत का उत्तराधिकारी था, पर इस समय वह एक दीन-हीन, आकुल-व्याकुल प्रेमी था।