'तो मेरा हुक्म है कि जो सवारी आ रही है, उसकी जांच-पड़ताल न की जाए, और वह बाइज्जत हमारे पास आने दी जाए।'
'सवारी कहां से आ रही है?'
'काटवा से।
'काटवा से कौन आ रही हैं?'
'काटवा के किलेदार महाराज जगपतिसिंह की महारानी कल्याणी देवी। वह मेरी सहेली हैं। आड़े वक्त पर मैं उनसे सलाह-मशविरा लेती हूं। दिल्ली की बाबत मैं उनसे मशविरा करना चाहती हूं।'
'बहुत खूब! मैं खुद काटवा जाकर महारानी को साय ले आता हूं। आप आराम फरमाएं।"
वृद्ध सेनापति दाढ़ी में मुस्कराता हुआ चला गया।
बाला ने एक दीर्घ निःश्वास खींचा।...
महल के झरोखे में खड़ी बाला अस्तंगत सूर्य की शोभा निहार रही थी अमराई में आम के बड़े-बड़े वृक्ष हवा के झोंकों के साथ झूम रहे थे। उनपर सूर्य की लाल किरणें पड़कर उनमें लज्जा से लाल नववधू के मुख की सी लालिमा उत्पन्न कर रही थीं। पक्षी अपने घोंसलों को लौट रहे थे।
किसीने पुकारा-मेहर!
'आह, जो पुरुष अब दुनिया में नहीं रहा, वही तो इस तरह पुकारता था!' मेहर ने मुंह फेरकर देखा। और वह दौड़कर रानी कल्याणी के गले से लिपट गई।
कल्याणी ने व्यथावरुद्ध स्वर में कहा-इतना हो गया, और मुझे खबर भी नहीं दी! दो ही दिन में यह सूरत बन गई। चेहरा स्याह हो गया। बिखरे-रूखे बाल, सूखे होंठ। जैसे कमल पर बिजली गिरी हो! बहिन, मुझे खबर क्यों नहीं दी?
मेहर के मुंह से बात नहीं फूटी। कल्याणी के वक्ष पर सिर रखकर वह फफक-फफककर रोने लगी।
'अब रोने-धोने से क्या होगा? जो होना था, हो गया। अब आगे की बात सोचो।'