सी। वृद्धा को उसके आने का भान नहीं हुआ। वह उसी भांति उन मूल्यवान कंकड़-पत्थरों को जल्दी-जल्दी इधर-उधर करती, खोलती-बांधती, साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी।
रमणी ने देखकर दीर्घ निःश्वास छोड़ा। फिर आहिस्ता से कहा-मरजाना, यह सब क्या है?
'जो-जो साथ ले चलना है, वही सब बांध-बूंध रही हूं।'
'तो तू समझती है कि मैं ससुराल जा रही हूं?'
वृद्धा की आंखों में आंसू आ गए। उसने एक बार रमणी की ओर देखा, फिर आंखें नीची करके कहा-बीबी, यह सब आगरा में काम आएंगे।
'तुझसे किसने कहा कि मैं आगरा जाऊंगी?'
'तो फिर नाव क्यों मंगाई है?'
'उस पार जाने के लिए।'
'उस पार कहां जानोगी?'
'जहां आंखें ले जाएं।'
रमणी ने बांदी के सामने कातर भाव प्रकट नहीं होने दिया। आंसुओं को आंखों ही में पी लिया।
बूढ़ी दासी बीबी को प्यार करती थी। उसने गुस्सा होकर कहा-आगरा भी नहीं जानोगी, यहां भी नहीं रहोगी। तो फिर इस दुनिया में तुम्हारे लिए ठौर कहां है?
बरवस एक आंसू रमणी की आंख से टपक ही पड़ा । पर उसे मरजाना ने देखा नहीं। उसने आहिस्ता से कहा-बीबी जान, जितना ज़रूरी है, वही ले चल रही हूं।
'आखिर किसलिए?'
'अपने काम आएगा, बीबी, अभी ज़िन्दगी बहुत है।'
'बोझ तो ज़िन्दगी का ही काफी है। इन कंकड़-पत्थरों का बोझ लादकर क्या करेगी?'
'ज़िन्दगी का बोझ हलका करूंगी। बीबी, तुम्हें नहीं लादना होगा। मैं ही ले चलूंगी।'
'नहीं, मरजाना, यह सब दामोदर के पानी में फेंक दे।'