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कलकत्ते में एक रात
 

राने लगे। वे तुरंत ही दो कांस्टेबिलों को लेकर मेरे साथ चल दिए।

मैं अनायास ही ठिकाने पर जा पहुंचा। जिस घर में जाकर मैं बेवकूफ बना था, इस समय उसके दरवाज़े में ताला पड़ा था, और उसपर 'टू लेट' का साइन-बोर्ड लगा था। पूछने पर पड़ोस के एक संभ्रांत बंगाली महाशय ने आकर कहा कि यह मकान उन्हींका है, और किराये को खाली है, तथा कई महीने से इसमें कोई नहीं रहता है। जब मैंने उनसे रात की घटना का जिक्र किया, तो वह हंसने लगे। उन्होंने कहा-बाबू का दिमाग फिर गया है। आप किसी दूसरे मकान में आए होंगे। वे हाथ का नारियल पीते हुए भीतर चले गए। हम लोग कोई सुराग न पाकर चले आए।

लगभग ढाई हजार के नोट और जवाहरात के अलावा मेरे बहुत कीमती कागज़ात भी गायब हो गए थे। वे सब उसी दिन मुझे अदालत में पेश करने थे। उसी काम से मैं कलकत्ता गया था। मुझे कोर्ट में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनमें से कुछ ज़रूरी कागजात प्रतिपक्षी वकील की फाइल में हैं, और उनसे मेरे विरुद्ध सबूत जुटाया जा रहा है। कहना न होगा, वह चालीस हजार का मुकदमा मैं उन कागजों को गंवाकर उसी तारीख को हार बैठा।

उसी दिन मैंने कलकत्ता त्यागा। घर आकर बहुत कोशिश उस भेद को खोलने की की, पर शोक, कुछ पता न चला। इस प्रकार कलकत्ते की वह एक रात मेरे जीवन में एक काल-रात बन गई।