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कलकत्ते में एक रात
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निस्सन्देह कोई मायाविनी है। उसके सौन्दर्य को तो मैं प्रथम ही भांप चुका हूं। अब उसके धन-वैभव का भी यह रंग-ढंग दिखलाई पड़ रहा है।

मैं महामूर्ख की भांति हक्का-बक्का होकर कमरे की प्रत्येक चीज़ को देख रहा था। बीच-बीच में घबरा भी उठता था कि कहीं कोई आफत न सिर पर आ टूटे।

वही बूढ़ा एक बड़ी ट्रे में बहुत-सा नाश्ते का सामान ले आया। उसमें अनेक बंगाली-अंग्रेजी मिठाइयां, नमकीन, चाय, फल, मेवा और न जाने क्या-क्या चीजें थीं। सब कुछ बहुत बढ़िया था। राजाओं को भी ऐसा नाश्ता शायद ही नसीब होता हो।

बूढ़े ने नाश्ता सामने रखकर कहा-मालकिन अभी तशरीफ ला रही हैं, तब तक आप थोड़ा जल खा लीजिए।

मेरा मन क्या जल खाने में था। मैंने अकचकाकर कहा-तुम्हारी मालकिन कौन हैं, कहां हैं? जो मुझे लाई थीं क्या वही हैं?

बूढ़े ने विनीत स्वर में कहा-सरकार, यह सब कुछ आप उन्हीं से पूछ लीजिए।

वह चला गया। मैं उठकर टहलने लगा। जलपान मैंने नहीं किया। अगर इसमें जहर मिला हो तब? कोई धोखे की बात हो तो? मैं उस आफत से भागने की जुगत लड़ाने लगा। परन्तु रह-रहकर मेरे पैर जकड़े जाते थे।

मैं अभी सोच ही रहा था कि एक परम सुन्दरी युवती ने कमरे में कदम रखा। वह बहुमूल्य साड़ी पहने थी, जिसके जिस्म पर सोफियाने और नाजुक रत्नजटित गहने थे। वह मुस्कराती आई और मेरे पास मसनद पर बैठ गई। उसके रूप की दुपहरी मुझसे सही न गई। मेरी आंखें चौंधियाने लगीं। वह रूप और यौवन, ऐश्वर्य और मादकता! मेरे होश उड़ गए।

उसने वीणा-विनिंदित स्वर में कहा-आपको बहुत देर इन्तज़ार करना पड़ा। आप शायद नाराज हो गए, क्यों?-वह हंस दी। मैं हंस न सका। मेरे मन में उसे देख वासना तो उद्दीप्त हो गई थी, पर मैं बुरी तरह घबरा रहा था। इस मायाजाल के भीतर क्या है, मैं जानने को छटपटा रहा था। वह और मेरे निकट खिसक आई। उसने उसी भांति हंसकर कहा-आपने नाश्ता भी नहीं किया और अब बोलते भी नहीं। इसका सबब?