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कलकत्ते में एक रात

बड़े-बड़े शहरों में आधुनिक सभ्यता के नये रंग-ढंग, छल-कपट के साधन भी बन गए हैं। इस कहानी का नायक उसीका शिकार है।

कलकत्ता जाने का मेरा पहला ही मौका था। मैं संध्या-समय वहां पहुंचा, और हरीसन रोड पर एक होटल में ठहर गया। होटल में जो कमरा मेरे लिए ठीक किया गया, उसमें सब सामान ठिकाने लगा थोड़ी देर मैं सुस्ताया। फिर स्नान कर, चाय पी, कपड़े बदल एक नज़र शहर को देखने बाहर निकला।

बरसात के दिन थे। अभी कुछ देर पहले पानी पड़ चुका था। ठंडी हवा के झोंके मन को हरा कर रहे थे। चलने को तैयार होकर मैं कुछ क्षण तक तो होटल के बरांडे में खड़ा होकर बाजार की भीड़-भाड़, चहल-पहल देखने लगा। गगनचम्बी अट्टालिकाएं, प्रशस्त सड़कें, उनपर पागल की भांति धुन बांधकर आतेजाते मनुष्यों की भीड़, मोटर, ट्राम-गाड़ी, यह सब देखकर मेरा दिल घबराने लगा। मैं खड़ा होकर सोचने लगा; आखिर यहां मन में कैसे शांति उत्पन्न हो सकती है।

अंधेरा हो गया था, परन्तु बाज़ार बिजली से जगमगा रहा था। कहना चाहिए, बाज़ार की शोभा दिन की अपेक्षा रात ही को अधिक प्रतीत होती है। जो दूकानें अभी दिन के प्रकाश में सुस्त और अंधकारपूर्ण थीं, इस समय वे जगमगा रही थीं। ग्राहकों की भीड़-भाड़ के क्या कहने थे, किसीको पलक मारने की फुर्सत न थी।

कुछ देर बाज़ार की यह बहार देखकर मैं नीचे उतरा। होटल के नीचे ही एक पानवाले की बड़ी शानदार दूकान थी। दूकान छोटी थी, पर बिजली के तीन प्रकाश से जगमगा रही थी। सोडे की बोतलें, सिगरेट, पान सजे धरे थे। सोने के वर्क लगी गिलौरियां चांदी की तश्तरी में रखी थीं। मैं दूकान पर जा खड़ा हुआ। एक चवन्नी थाल में फेंककर दो बीड़ा पान लगाने को कहा। दूकानदार पान बनाने