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डाक्टर साहब की घड़ी
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ढांचा ही बिल्लौर का था। सर्पाकार एक पाये के ऊपर मेज़ रखी थी। यह मेज़ खास इसी मकसद के लिए डाक्टर साहब ने खास लन्दन से खरीदी थी। उस मेज़ पर इटली की बनी एक अति भव्य मार्बल की स्त्री-मूर्ति थी। यह मूर्ति रोमन कला की प्रतीक-रूप थी, जिसे डाक्टर साहब ने बड़ी खोज-जांच से खरीदकर उसके हाथ में एक चतुर कारीगर से एक स्प्रिग लगवाया था, जिसमें ऐसी व्यवस्था थी कि घड़ी हमेशा उस पुतली के उसी हाथ में रखी रहती थी। ठीक समय पर घड़ी के हीरे पर स्प्रिंग का दबाव पड़ता तो घड़ी से ताल-स्वर-युक्त मधुर संगीत की ध्वनि निकलती। उस समय जैसे वह प्रस्तर-मूर्ति ही मुखरित हो उठती थी। मित्रगण घड़ी का यह चमत्कार देख, जब आश्चर्यसागर में गोते खाने लगते तो डाक्टर गर्वोन्नत नेत्रों से कभी घड़ी को और कभी मित्रों को घूर-घूरकर मन्द-मन्द मुस्कराया करते थे।

सावन का महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। काले-काले मेघ आकाश में छा रहे थे; बीच-बीच में गम्भीर गर्जन हो रहा था। चारों ओर हरियाली अपनी छटा दिखा रही थी। दिन का तीसरा प्रहर था। डाक्टर साहब अपने तीन घनिष्ठ मित्रों के साथ उसी डाइंगरूम में बैठे आनन्द से धीरे-धीरे वाताप कर रहे थे। उन मित्रों में एक मेजर भार्गव थे, दूसरे दीवान पारख थे, और तीसरे एक नवयुवक मिस्टर चक्रवर्ती आई० सी० एस० थे। एकाएक घड़ी में से मधुर गूंज उठी। मित्रमण्डली चकित होकर घड़ी की ओर देखने लगी। डाक्टर साहब आंखें बन्द किए सोफे पर उढ़ककर उस मधुर स्वरलहरी को जैसे कानों से पीने लगे। जब घड़ी का संगीत बन्द हुआ तो मिस्टर चक्रवर्ती ने कपाल पर आंखें चढ़ाकर कहा-अद्भुत घड़ी है यह आपकी डाक्टर साहब! -यह तो मानो घड़ी की कुछ तारीफ ही न थी। डाक्टर ने सिर्फ मुस्करा दिया। मेजर साहब ने कहा-अद्भुत! अजी, इस घड़ी का तो एक इतिहास है! -फिर उन्होंने डाक्टर की ओर मुंह करके कहा-वह सूबेदार साहब वाली घटना तो इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है न?

डाक्टर साहब जैसे चौंक पड़े। एक वेदना का भाव उनके होंठों पर आया और उन्होंने धीमे स्वर से कहा-जी हां, वह दुःखदायी घटना इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है।