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वासवदत्ता
 

पृथ्वी पर कोई मनुष्य इसे तुम्हारे समान न बजा सकेगा। इसके साथ कभी न मुरझानेवाले दिव्य फूलों की माला और दिव्य ताम्बूल भी लो। तथा मैं तुम्हें कभी मैले न होनेवाले तिलक की भी युक्ति बताता हूं।

वह नाग इतना कह तथा वे सब वस्तुएं राजकुमार उदयन को दे अन्तर्धान हो गया। राजकुमार ऐसी अनोखी वस्तुएं पाकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह शीघ्र ही बड़ी दक्षता से वह वीणा बजाने लगा और दूर-दूर तक उदयन के वीणावादन की ख्याति हो गई। कुछ दिनों बाद महाराज सहस्मानीक वृद्ध हुए और पुत्र को राजा बनाकर तप करने के लिए वन में चले गए। राजा होकर भी महाराज उदयन अपने मन्त्री यौगन्धरायण पर राज्य का सब कार्य-भार डालकर आनन्द करने लगे। उन्हें हाथियों के शिकार का बड़ा शौक था। रात-दिन वे शिकार ही की धुन में रहने लगे। वासुकी नाग की दी हुई दिव्य वीणा वे रात-दिन बजाया करते। वन में उस वीणा से वशीभूत हो हाथियों का झुण्ड उनके पास चला आता जिन्हें बंधवाकर, अपने मन्त्रियों के पास भिजवाकर वे खूब प्रसन्न होते।

उन्हीं दिनों उज्जयिनी में प्रद्योत चण्डमहासेन नामक महाप्रतापी राजा राज्य करता था। उसकी एक कन्या बड़ी रूपवती और दिव्य गुणों से भूषिता थी। उसका नाम वासवदत्ता था, शरच्चन्द्र की चांदनी के समान वह उज्ज्वल और हरिण-शिशु के समान वह भोली थी। उसकी कांति हीरे के समान थी और सुकुमारता में कोई कुसुम उसके अनुरूप न था। देश-देश में उसके रूप, गुण, शील की चर्चा फैली थी। देश के प्रतापी राजकुमार उससे विवाह करने को लालायित थे।

महाराज उदयन की वीणावादन की कीर्ति देश-देश में फैल गई। वे कामदेव के समान सुन्दर भी थे। उनकी यह कीर्ति वासवदत्ता के कान में भी पड़ी। उसने बाल-हठ से कहा-पिता, मैं भी उदयन के समान वीणा बजाऊंगी और नृत्य सीखूगी। आप उदयन को बुलाकर उससे कहिए कि वह मुझे अपने ही समान वीणावादन सिखाए, नहीं तो मैं जीवित नहीं रहूंगी।

प्यारी पुत्री का यह बाल-हठ देख महाराज चण्डमहासेन ने उसे बहत समझाया-बुझाया और कहा--उदयन साधारण पुरुष नहीं है, वह हमारेही समान राजा है। फिर वह बड़ा मानी, स्वतन्त्र और बलवान भी है। हम कैसे उससे कहें कि यहां आकर तुम्हें वीणा-वादन सिखाए? परन्तु राजनन्दिनी ने हठ नहीं छोड़ा। उसने