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कहानी खत्म हो गई
 


भारद्वाज ज़ोर से हंस पड़े।

मैंने कहा-ठीक है, आप हंस सकते हैं। मेरे दुश्चरित्र और दुराचार का यह प्रमाण जो आपको मिल गया!!

मैं चुप हो गया, और मैंने आंखें बन्द कर लीं। लेकिन वही तरबूज! एक प्रकार से मैं चीख उठा।

मेजर वर्मा ने कहा-रहने दीजिए। बाकी कहानी फिर कभी सुन ली जाएगी। अभी आपकी तबियत दुरुस्त नहीं है। लेकिन मैंने कहना प्रारम्भ कर दिया:

दूसरे दिन मैंने उसे नहीं देखा। यह नहीं कह सकता कि देखना नहीं चाहा। पर मैंने अपने मन को रोकने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। पर बेकार। उसकी छिपी हुई नजरें झांकती ही रहीं। उसके होंठ मुस्कराते ही रहे। मैंने सुना: उसकी सगाई हो गई है, और इसी साहलग में उसका ब्याह होगा।

दशहरे के दिन मेरा तिलक चढ़ा। बहुत धूमधाम हुई। गाजे-बाजे, जशनदावत, कहां तक कहूं। पिता का सबसे छोटा बेटा था। वे सबसे अधिक मुझको प्यार करते थे। भीड़-भाड़ में एक होकर मैंने देखा, हर बार मुझे प्रतीत हुआ, वह मुझको देख रही है।

छुट्टियां समाप्त होने पर मैं होस्टल में लौट आया। धीरे-धीरे वह उन्माद बीत गया। स्मृति अवश्य बनी रही, वह भी धुंधली होते-होते छिप गई। अगले वर्ष मेरी शादी हुई। सुषमा ने आकर मेरे जीवन को एक नया मोड़ दिया। सुषमा जैसी पत्नी पाकर मैं कृतार्थ हो गया। वह जैसी सुशिक्षिता है, वैसी ही शीलवती, परिश्रमी और हंसमुख स्वभाव की है। उसके प्रेम, सेवा और विनय से मैं उसमें लीन हो गया। उस लड़की की याद करके और अपनी हिमाकत का विचार करके कभी-कभी मुझे हंसी आ जाती थी, पर कभी मैंने किसी से अपने मन का यह कलुष कहा नहीं। परीक्षा पास करके मैं घर पर रहकर जमींदारी की देखभाल करने लगा। खेती और बागबानी का मुझे शौक था। उसमें मैंने मन लगाया। बड़े भाई डिप्टी-कलक्टर होकर बिहार चले गए थे। पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मंझले भाई भी केन्द्र के शिक्षा विभाग में अंडर सेक्रेटरी हो गए। घर पर केवल मैं अकेला रह गया। दिन बीतते चले गए। तीन बरस बीत गए और ईश्वर की कृपा से सुषमा की कोख भरी। मेरै आनन्द का ठिकाना न रहा।