राजकुमार ने कहा-तुम लोग प्रेम करो और सेवा करो। फिर किसीकी ज़रूरत न रहेगी।
अन्तःपुर में जाने पर रानी ने चरणों में लोटकर कहा-स्वामी, इस अपराधिनी से यह महल अपवित्र होता है। मुझे आज्ञा दें कि मैं प्राणनाश करके प्रायश्चित करूं।
'प्रिये, ऐसा न करो। प्रेम और सेवा दोनों का एक रस चखा है फिर प्राणनाश क्यों?'
'हाय नाथ, यह प्रेम और सेवा मुझे अंधी दिशा में ले गई थी।'
'परन्तु अब नहीं प्रिये, यह असम्भव है। अब तुम पात्रापात्र सभी से प्रेम करो, सभी की सेवा करो। निष्काम और जितेन्द्रिय।'
सेनापति ने आकर कहा:
'गज़ब हो गया महाराज, शत्रु संधि पाकर दल-बल से चढ़ आया है।'
'मन्त्री से कहो, उनके आतिथ्य में किसी प्रकार की कमी न रहे। पीछे मैं स्वयं उनसे मिलूंगा।'
'परन्तु महाराज, वे रक्तपात के लिए आए हैं।'
'क्यों, क्यों?'
'महाराज, वे आपका राज्य चाहते हैं।'
'तो ले लें, इसमें रक्तपात की क्या बात है?'
सेनापति निराश भाव से लौट गए।
राजा पागल हो गया है। इसे राजच्युत करो। वरना राज्य की खैर नहीं, सभी राज्यवर्गी एक मुख से यही कह रहे थे।
कुछ कह रहे थे कि इसे तलवार के घाट उतार दो। भ्रष्टा रानी और बदमाश मंत्री को भी। इन सबको मार डालो। वरना सारी राज्य-व्यवस्था धूल में मिल जाएगी।
महाराजकुमार ने कहा-मेरे मारने अथवा राज्यच्युत करने से तुम्हारा कल्याण हो तो खुशी से करो। यह मेरी तलवार लो। उन्होंने तलवार निकालकर विरोधियों को दे दी।
बुद्ध भगवान तेज-विस्तार करते हुए आते दीख पड़े। उन्होंने कहा-वत्स, मैं