राजधर्म
यह बद्ध-धर्म के प्रभाव को व्यक्त करनेवाली कल्पना-प्रसूत कहानी है। इसमें राजधर्म और बुद्ध के प्रेमधर्म का अन्तर्द्वन्द्व प्रकट किया गया है।
दिगन्त-व्यापी जयघोष से क्षण-भर को समाधिस्थ बुद्ध चल हुए। आनन्द ने आंख उठाकर देखा, महाराजकुमार अपने राजकीय परिच्छद और बहुमूल्य शस्त्रों से सज्जित चपल घोड़े से उतर रहे हैं। उनकी अनुगत सेना पंक्ति बांधे अविचल खड़ी है। वन की वह शान्त तपस्थली राजवैभव से जैसे मुखरित हो उठी है। महाराजकुमार आगे बढ़े और उनके पीछे ही सौ दास बहुमूल्य उपहारों से भरे स्वर्ण-थाल लिए चले। महाराजकुमार ने संकेत किया, थाल महाबुद्ध के सम्मुख रख दिए गए। राजकुमार उन्हें सामने रखकर करबद्ध बैठ गए। आनन्द ने देखा और मस्तक झुका लिया। कुमार ने महाबुद्ध की प्रशान्त समाधिस्थ अचल मुद्रा को एक बार देखकर जलद गम्भीर स्वर में कहा-महागुरु परम भट्टारक महापादीय, महाराजकुमार सुवर्ण आपकी सेवा में भेंट अर्पण कर प्रणाम करता है।
परन्तु कुमार का अभिवादन जैसे वातावरण में एक कम्पन कर वापस लौट आया। प्रबुद्ध ने देखा नहीं, वे हिले भी नहीं। उनके होंठ जड़वत् रहे। आनन्द ने एक बार प्रबुद्ध सत्त्व को देखा, और सिर झुका लिया। महाराजकुमार का मुख क्रोध से तमतमा गया। उनके होंठ फड़के और एक अस्फुट ध्वनि उसमें से निकली ओह इतना घमण्ड!
वे उठे और अपने घोड़े पर सवार होकर लौट गए। उनके जाने पर आनन्द ने शिष्यों से संकेत में कहा-यह सब भेंट की सामग्री महाराजकुमार को लौटा आओ।
अधिकार, यौवन, वंश और अभ्यास ने कुमार के खून को खौला दिया। वे उस रात न सो सके, वे सोचते रहे, उसका इतना घमंड? पाखंडी! मैं उसकी सेवा