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ग्यारहवीं मई
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सिरों पर रखने के लिए प्रार्थना की। बादशाह ने ऐसा ही किया। उस समय खूब शोर और ऊधम मचा हुआ था। और सब लोग एक राय होकर ऊंची आवाज़ से चिल्ला रहे थे। बादशाह अपने खास कमरे में चले गए। और सवारों ने सहन में घोड़े बांधकर दीवाने-आम में अपने विस्तर खोलकर बिछा दिए। और किले के चारों तरफ पहरा तैनात कर दिया।

विद्रोहियों के शहर में घुस आने, अंग्रेजों के कत्ल करने, इमारतों को जलाने, ढहाने, महसूलखाना मीरवहर को ढा देने की खबर जब छावनी में पहुंची तो जंगी अफसरों ने तमाम फौज को तैयार होने का हुक्म दिया।

सबसे पहले ५४ नं० रेजीमेण्ट हिन्दुस्तानी पैदलों की छः कम्पनियां रेली साहब की अधीनता में काश्मीरी दरवाजे की ओर चलीं। इनके साथ सिर्फ बन्दूकें थीं। दो कम्पनियां मेजर टेम्प्रेस की अधीनता में तोपों के साथ जाने को तैयार हो गईं। थोड़ी दूर ही पर विद्रोहियों से इनकी भेंट हो गई। अफसर बेफिक्री से आगे-आगे चल रहे थे। विद्रोहियों ने सिपाहियों से कहा-तुम्हें हम कुछ न कहेंगे, सिर्फ इन फिरंगियों को मारेंगे।-इतना कहकर उन्होंने गोलियां सर करनी शुरू कर दी। पहली ही गोली में कर्नल रेली गिर पड़े, विद्रोहियों ने तत्काल उनका सिर काट डाला।

कम्पनी के सिपाहियों ने अफसरों की आज्ञा से न बन्दूकें भरीं न विद्रोहियों को रोका-वे सब भी विद्रोहियों में मिल गए। इतने में एक कप्तान सिपाहियों की गारद लिए पहुंच गए जो एक सप्ताह के लिए शहर की रक्षा के लिए नियत किए गए थे। उन्होंने यह माजरा देख अपनी गारद को फायर का हुक्म दिया। पर उन्होंने भी उनकी परवाह न की और कहने लगे-तुम फिरंगियों ने हमारा मज़हब खराब किया है। हमसे अब रहम की आशा न रखना। निदान सभी अफसर कत्ल कर डाले गए।

ग्यारह बजे दोपहर को जब इस घटना की खबर छावनी पहुंची तब ७४ नं० रेजीमेण्ट की पूरी टुकड़ी विद्रोह का दमन करने को शहर की ओर चली। परन्तु इसकी सिर्फ दो ही कम्पनियां वहां हाजिर थीं, बाकी सब सिपाही लापता थे। रास्ते में अफसरों की लाशें छावनी की ओर गाड़ियों पर लदी हुई आती दीख पड़ी। उनके ऊपर स्त्रियों के गाउन पड़े थे।

बारह बजे के लगभग पहाड़ी पर का बुर्ज स्त्रियों, घायलों और बच्चों से भर