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क्रांतिकारिणी
 


थे। पर मैं तो मानो गहरे स्वप्न में मग्न था।

तीसरे दिन डाक से एक पत्र मिला। उसमें लिखा था--भाई, मुझे क्षमा करना, अब मैं आपसे नहीं मिल सकती। वे रुपये जो आपको दे आई हूं, मेरठषड्यन्त्र केस में खर्च करने को वहां के माननीय अभियुक्तों की राय से उनके वकीलों को दे दीजिए। मैं इसी काम के लिए मेरठ गई थी। आपसे मिलकर अनायास ही मेरा यह काम हो गया। रुपया इस पत्र के पाने के चौबीस घंटे के भीतर ठिकाने पर पहुंचा दीजिए, वरना जो लोग इसकी निगरानी के लिए नियत हैं, वे इस अवधि के बाद तत्काल आपको गोली मार देंगे। सावधान! दगा या असावधानी न कीजिएगा। इस पत्र के उत्तर की आवश्यकता नहीं। रुपया ठिकाने पर पहुंचते ही मुझे तत्काल उसका पता लग जाएगा।

आपकी,
धर्म-बहिन

एक बार पत्र पढ़कर मेरा सम्पूर्ण शरीर कांप उठा, और पत्र हाथ से गिर गया। इसके बाद मैंने झटपट झुककर पत्र को उठा लिया। भय से इधर-उधर देखा, कोई देख तो नहीं रहा। मेरी आंखों में आंसू भर आए। मैं नहीं जानता, क्यों। मैंने पत्र को एक बार चूमा, और फिर आंखों और माथे से लगाया। इसके बाद उसे उसी समय जला दिया। नोटों का बण्डल अभी भी मेरी जेब में था।

रुपये मैंने किसे दिए, वह प्राण देकर भी मैं किसीको नहीं बताऊंगा। हां, इतना अवश्य कह देता है कि मैं इस काम से निपटकर शीघ्र ही दिल्ली चला पाया। पर कई दिन तक कचहरी न जा सका। ऐसा मालूम होता था, मानो शरीर की जान-सी निकल गई हो।

एक दिन संध्या समय मेरे नौकर ने कहा--कुछ लोग बहुत आवश्यक काम से आपसे भेंट किया चाहते हैं।

बैठक में जाकर देखा तो वही दारोगाजी थे। उनके साथ सुपरिण्टेण्डेण्ट पुलिस और सी० आई० डी० इन्स्पेक्टर भी थे। देखते ही मेरे देवता कूच कर गए। देखा सारा मकान घेर लिया गया है। किन्तु मैंने ज़रा रूखे स्वर से पूछा--कहिए, क्या बात है?

दारोगाजी ने थोड़ा हंसकर कहा--कुछ नहीं, ज़रा आपकी बहिनजी से एक