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क्रान्तिकारिणी
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 इसका जैसा वेष है, उसे देखते तो दरिद्र मालूम होती है, कोई सामान तक पास नहीं। मैं पशोपेश में पड़ा कुछ सोच ही रहा था, एकाएक उसने कहा-एक कष्ट और आपको दूंगी।

मैंने समझा, अवश्य यह कुछ रुपया मांगेगी। मैंने जेब से मनीबेग निकालते हुए कहा-कहिए!

उसने अपने हाथ की पोटली खोली और एक बण्डल निकालकर मेरे हाथ में थमा दिया। देखा, नोटों का गट्ठर था। सौ-सौ रुपये के नोट थे। मैं अवाक रह गया।

उसने सहज भाव से कहा--पन्द्रह हज़ार रुपये हैं। इन्हें ज़रा रख लीजिए, कहीं रास्ते में गिर-गिरा पड़ें, कहां-कहां लिए फिरूंगी।

मेरा तो सिर चकराने लगा। स्त्री है या मायामूर्ति, कपड़े तक वदन पर काफी नहीं, और पन्द्रह हजार रुपये हाथों में लिए फिरती है। और बिना गवाह-प्रमाण मुझ अपरिचित को सौंप रही है, मानो रद्दी अखबारों का गट्ठर हो। मैंने कहाठहरिए, रकम को इस भांति रखना ठीक नहीं।

उसने लापरवाही से कहा-मैं लौटकर ले लूंगी, अभी तो आप रख लीजिए।

-जिस लहजे में उसने कहा, मैं अब टालमटोल न कर सका। काठ की पुतली की भांति नोटों का बंडल हाथ में लिए विमूढ़ बना खड़ा रहा।

टैक्सी आई और वह लपककर उसमें बैठ गई। एक क्षीण मुस्कराहट उसके मुख पर आई। उसने टैक्सी से मुंह निकालकर कहा--एक बात के लिए क्षमा कीजिएगा! मैंने रेल में आपको 'तुम' कहा था। आवश्यकतावश ही यह अनुचित घनिष्ठता का वाक्य कहना पड़ा था। वह मानो और भी खुलकर मुस्करा पड़ी, और उसकी सुन्दर मोहक दंतपंक्ति की एक रेखा आंखों में चौंध लगा गई। दूसरे ही क्षण मोटर पाखों से ओझल हो गई।

तीन दिन बीत गए। न वह आई, न उसका कुछ समाचार ही मिला। तीनों दिन मैं एकटक उसकी बाट देखता रहा। न सोया, न खाया, न कुछ किया। कब विवाह हुआ, और कब क्या हुआ, मुझे कुछ स्मरण नहीं, मानो हजार बोतलों का नशा सिर पर सवार था। छाती पर नोटों का गट्ठर और आंखों में वह अंतिम हास्य! बस, उस समय मैं इन्हीं दो चीज़ों को देख और जान सका। मित्र हैरान