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अभाव
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टनन्-टनन्! टेलीफोन चिल्ला उठा। युवक ने चौंककर देखा। उठकर कहा-हलो, आपका नाम?

'क्या आप डाक्टर साहब हैं? मैं धनपत राय हूं।'

'जी हां, कहिए।'

'योह, मेरी स्त्री के मरा बच्चा हुआ है, वह बेहोश है। कृपा कर अभी आइए, वरना उसके प्राण बचना कठिन है।'

'परन्तु यह तो बड़ा कठिन है, शहर में तो मार्शल लॉ हो रहा है, कौन इस समय घर से बाहर निकलेगा? जान किसे भारी है। यह डायर की अमलदारी हैं।'

'परन्तु डाक्टर साहब! वह मर रही है, क्या आप भी मेरा साथ न देंगे? मैं आपका बीस वर्ष का पुराना मित्र, सहपाठी और भाई हूं।'

युवक का माथा सिकुड़ गया। उसके होंठ कांपने लगे।

'हलो'

'जी हां।'

'वह ठंडी हो रही है, घर की स्त्रियों का रोना बन्द करना मुझे कठिन हो रहा है।

'मैं आ रहा हूं।'

डाक्टर ने जल्दी से वस्त्र पहने और वे उस शून्य राजमार्ग में अपनी ही पद ध्वनि से स्वयं चौकन्ने होते हुए चले। नाके पर पहुंचकर गोरे सार्जन्ट ने बन्दूक का कुन्दा उनकी ओर घुमाकर कहा-कौन!

उन्होंने निकट जाकर कहा-मैं हूं डॉ० मेजर आर० एल० कपूर, एम० डी० ।

'मगर आप जा नहीं सकते, आप पास दिखाइए।'

'पास मेरे पास नहीं है। एक रोगिणी मर रही है, मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं।'

'वैल, तुम कीड़े के माफक रेंगकर जा सकता है।'

'क्या कहा, कीड़े के माफक?'

'यस, इस गली में इसी तरह जाना होगा। नीचे झुको।'

'कदापि नहीं। मैं भी अफसर हूं-और ३५ नं ० रेजीमेंट का कर्नल मेजर हूं।'

'मगर काला आदमी हो।'

'इससे क्या?'