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(४) ‘धातुवाद’--शब्दालंकार को अर्थालंकार बना देना ।

(५) ‘सत्कार’--एक ही वस्तु को उत्कृष्ट रूप में बदल देना ।

(६) ‘जीवञ्जीवक’--पहले जो सदृश था उसे असदृश कर देना ।

(७) ‘भावमुद्रा’--प्राचीन उक्ति का आशय लेकर प्रबन्ध लिखना ।

(८) ‘तद्विरोधी’--प्राचीन उक्ति के विरुद्ध उक्ति । ये ३४ अर्थहरण के प्रकार हैं ।



(५)

काव्यों में कुछ ऐसी बातें आती हैं जो न शास्त्रीय हैं न लौकिक किन्तु अनादि काल से कवि इनका व्यवहार करते आये हैं । ये ‘कविसमय’, ‘पोएटिकल कन्वेन्शन’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये बातें एकदम अशास्त्रीय हैं वा अलौकिक हैं यह सहसा कह देना कठिन है--जब हम इनको अनादि काल से व्यवहृत पाते हैं । शास्त्र अनन्त हैं--देश अनन्त हैं । लोकानु-भव भी अनन्त हैं। फिर यह कहने का साहस किसको हो सकता है कि यह बात शास्त्रों में कही नहीं हैं--या ऐसा अनुभव कभी किसी का नहीं हुआ ? इसी विचार से इन कवि-समयों का प्रयोग दुष्ट नहीं समझा जाता ।

ये कवि-समय तीन प्रकार के हैं--स्वग्रर्य, भौम, पातालीय । इन तीनों में भौम प्रधान है । ये तीनों प्रत्येक तीन प्रकार के होते हैं--असत् बात का कहना, सत् का नहीं कहना, अनियत को नियत करना ।

(१) भौम--असत् बात का कहना । नदी में कमल का वर्णन (बहता जल में कमल नहीं होला)--जलाशय-मात्र में हंस का वर्णन (हंस केवल मानसरोवर में रहते हैं)--सभी पर्वतों में सोना रत्न इत्यादि की उत्पत्ति का वर्णन (असल में सब पर्वतों में ये सब चीजें उत्पन्न नहीं होतीं) स्त्री के कमर को ‘मुष्टिग्राहय’, मुट्ठी भर, वर्णन करना–अन्धकार को ‘सूचीभेद्य’, सूई से छेदने लायक बतलाना--चक्रवाकों की जोड़ी रात को अलग रहती है, चकोर चन्द्रकिरणों को पीता है, इत्यादि ।

(२) भौम——सत् का नहीं कहना । वसन्त ऋतु में मालती का वर्णन

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