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इस विषय में पण्डितों में यह श्लोक प्रसिद्ध है——

कविनुहरतिच्छायामथं कुकविः पवादिकं चौरः।

सर्वप्रबन्धहर्ने साहसकर्त्रे नमस्तस्मै ॥

अर्थात् जो दूसरों के काव्य की छाया मात्र का अनुकरण करता है सो ‘कवि’ है । जो अर्थ या भाव का अनुकरण करता है सो ‘कुकवि’ है । जो पदवाक्यादि का अनुकरण करता है सो ‘चोर’ है । जो समस्त प्रबन्ध, पदवाक्य, अर्थ, भाव सभी का अनुकरण करता है ऐसे साहस करनेवाले को नमस्कार है ॥

इस संबंध में कविकण्ठाभरण में छः दर्जे के कवि कहे गये हैं——

छायोपजीवी, पदकोपजीवी, पादोपजीवी सकलोपजीवी।

भवेदथ प्राप्तकवित्वजीवी स्वोन्मेषतो वा भुवनोपजीव्यः॥

अर्थात--(१) दूसरे के काव्य की छाया-मात्र लेकर जो कविता करे । (२) एक आध पद लेकर (३) श्लोक का एक पाद लेकर (४) समग्र श्लोक लेकर (५) जो कवि शिक्षा प्राप्त कर ऐसी शिक्षा के बल से कविता करे (६) अपने स्वाभाविक प्रतिभा के बल कविता करे ।।

कुछ लोगों का कहना है कि प्राचीन कवियों के काव्यों का भलीभाँति परिशीलन करने की आवश्यकता है क्योंकि यही एक उपाय है कि परो-च्छिष्ट भावों को हम बचा सकें——या उन भावों को हम उलट फेर कर अपने काव्य में उपयोग कर सकें । पर असल में कवि की प्रतिभा अवाङ-मनसगोचर दृष्ट तथा अदृष्ट वस्तुओं को जान लेती है--और उनका उचित-अनुचित विभाग भी कर लेती है । कवियों के ऊपर सरस्वती जी की ऐसी कृपा है कि जो वस्तु और लोगों के लिए जाग्रत् अवस्था में अदृश्य है सो भी कवियों को स्वप्नावस्था में भासित हो जाता है । इसी कृपा के प्रसाद से दूसरों के शब्द और भाव के प्रसंग में कवि अंधा होता है--उनके अतिरिक्त में उनकी दिव्य दृष्टि होती है। कवियों के मतिदर्पण में समस्त संसार प्रति-बिम्बित होता है । शब्द और अर्थ सभी कवियों के सामने स्वयं उपस्थित होते रहते हैं । इस आशा से कि कवि जी मेरा ही ग्रहण करेंगे ।

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