कुछ विचार कर इन्होंने उत्तर दिया ‘कटु’—— । ‘यह कैसे विश्वास करूँ ? प्राश्निक ने पूछा । उत्तर मिला, ‘सूअर जब विष्ठा खाता है तब उसकी आँखोंसे आँसू बहता है, यह केवल कटु पदार्थ ही के खाने से होता है’ । पूछनेवाला संतुष्ट हो गया ।
मिथिला में जब से पंडिताई की दक्षिणा में राज्य मिला तब से पंडितों की परीक्षा महाराज के दरबार में होती है । दरबारी प्रधान पंडित परीक्षा लेते हैं——उत्तीर्ण पंडितों को महाराज के सामने शास्त्रार्थ करना पड़ता है । पारितोषिक में प्रतिष्ठासूचक एक जोड़ा धोती का मिलता है——और महाराज की ओर से या और मिथिलास्थ धनियों की ओर से जब कभी पंडितों का निमंत्रण होगा तो इन्ही धोतीवालों की होगा । यह प्रथा अब तक जारी है ।
दूसरों के रचित शब्द और अर्थ का अपने प्रबन्ध में निवेश करना ‘हरण’ ‘चोरी’ ‘प्लैजियरिज्म’ कहलाता है ।
शब्द की ‘चोरी’ पाँच प्रकार की होती है--एक पद का, श्लोक के एक पाद का, श्लोक के दो पादों का, सम्पूर्ण श्लोक का, सम्पूर्ण प्रबन्ध का । परप्रयुक्त पदों का बचाना असंभव है । इसी तात्पर्य से कहा है--
नास्त्यचौरः कविजनो नास्त्यचौरो वणिग्जनः।
उत्पादकः कविः कश्चित् कश्चिच्च परिवर्तकः॥
आच्छादकस्तथा चान्यस्तथा संवर्गकोऽपरः।
अर्थात् कोई भी बनिया ऐसा नहीं जो चोर नहीं है, कोई भी कवि ऐसा नहीं जो चोर नहीं है । कोई कवि ‘उत्पादक’ होता है, नई रचना करता है, कोई ‘परिवर्तक’,अर्थात् दूसरों की रचना में फेर-बदल कर अपना बनाता है, कोई ‘आच्छादक’, अर्थात् दूसरों की रचना को छिपाकर तत्सदृश अपनी रचना का प्रचार करता है, कोई ‘संवर्गक’, अर्थात् डाकू, खुल्लम-खुल्ला दूसरे के काव्य को अपना कहकर प्रकाश करता है ।