(९) रसगत रमणीयता । (बिहारी १४)
स्वेद सलिल रोमांच कुस गहि दुलहिन अरु नाथ ।
दियो हियो सँग नाथ के हाथ लिये ही हाथ ।
आत्मसमर्पण का वैसा सुन्दर चित्र है !
पद्माकर--
चन्दकला चुनि चूनरि चारु दई पहिराय सुनाय सुहोरी
बेंदी विशाखा रची पदमाकर अंजन आँजि समारि के गोरी ।
लागी जबै ललिता पहिरावन कान्ह को कंचुकि केसर बोरी
हेरि हरे मुसकाय रही अंचरा मुख दै वृषभान-किसोरी॥
हास्य का भी रमणीय वर्णन पद्माकर ने किया है--
हँसि हँसि भजै देखि दूलह दिगम्बर को
पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में ।
कहै पदमाकर सुकाहूसौं कहै को कहा
जोई जहाँ देखै सो हँसेई तहाँ राह में ।
मगन भयेई हँसै नगन महेश ठाढ़े
औरे हंसेऊ हँसो हँस के उमाह में
शीश पर गंगा हँसै भुजनि भुजंगा हँसै
हास ही को दंगा भयो नंगों के विवाह में ॥
(१०) रसालंकारोभयगतरमणीयता--के भी ये ही उदाहरण हैं ।
(४) कवि शिक्षा की चौथी शिक्षा है गुण-दोष-ज्ञान । यहाँ (१) शब्दवैमल्य (२) अर्थवैमल्य (३) रसवैमल्य ये तीन ‘गुण’ हैं, और (१) शब्दकालुष्य (२) अर्थकालुष्य (३) रसकालुष्य--ये तीन ‘दोष’ हैं ।
शब्दवैमल्य । यथा पद्माकर--
राधामयी भई श्याम की मूरत श्याममयी भई राधिका डोलें ।
शब्दकालुष्य----के उदाहरण वे होंगे जहाँ शृंगार या करुणरस के वर्णन में विकट वर्गों का प्रयोग होगा--या वीररस के वर्णन में कोमल