धीर धर धीर घर कीरति किशोरी भई
लगन इतै उतै बराबर जगी रहैै ।
जैसी रटि तोहि लागी माधव की राधे ऐसी
राधे राधे राधे रट माधव लगी रहै ॥
यहाँ न शब्द की छटा है न अलंकार का चमत्कार--पर भाव कैसा प्रगाढ़ है !
(७) शब्दार्थोभयगतरमणीयता । (बिहारी ३२)
समरस समर-सकोच-बस विबस न ठिकु ठहराय ।
फिर फिर उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाय ॥
यहाँ समानलज्जामदना मध्या का स्वाभाविक चित्र हृदयग्राही है । साथ साथ शब्द-लालित्य भी है । तथा पद्माकर--
औरे रस औरे रीति औरे राग औरे रंग
औरे तन और मन औरे वन ह गये ॥
(८) अलंकारगत रमणीयता--
कहँ कुम्भज काँलेज सिन्धु अपारा । सोखेउ सुयश सकल संसारा।
रवि मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु त्रिभुवन तम भागा॥
मन्त्र परम लघु तासु बस विधि हरि हर सुर सर्व ।
महामत्त गजराज कहँ वश कर अंकुश खर्व ॥
कैसी उपमाओं की शृंखला है ! फिर व्यतिरेक और उत्प्रेक्षा की छटा रामायण ही में--
गिरामुखर तनु अर्ध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ।
विष वारुनी बन्धु प्रिय जेही । कहिय रमासम किमु वैदेही ॥
जो छविसुधापयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥
शोभा रजु मन्दर शृंगारू । मथै पाणिपंकज निज मारू ॥
एहि विधि उपजै लच्छि सब सुन्दरता सुखमूल ।
तदपि सकोच समेत कवि कहहिं सीय समतूल ॥