में विरहिणी वसन्त की शोभा का वर्णन करती हुई अन्त में कहती है--‘बिन प्यारे हमें नहिं जात सही’। इसका उत्तरार्द्ध यों है--(यह कविता मेरे भाई की है)--पूर्वार्द्ध मुझे स्मरण नहीं है ।
यदुनन्दन आयो अरी सजनी एक औचक में सखि आय कही।
सुनि चौकि चको उझको हरखाय उठी मुसुकाय लजाय रही।
अथवा पद्माकर का कवित्त--
लपटै पट प्रीतम को पहिरचौ पहिराय विये चुनि चूनर खासी....
कान्ह के कान में आँगुरि नाय रही लपटाय लवंगलता सी।
(५) शब्दगतरमणीयता । इसके उदाहरण पद्माकर के काव्य में अधिक पाये जाते हैं--यथा वसन्त-वर्णन--
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन कलीन किलकंत है ।
कहै पदमाकर परागन में पानहूँ में
पानन में पीक में पलाशन पतंग है ।
द्वार में दिशान में दुनी में देश देशन में
देखो दीप दीपन में दीपत दिगंत है ।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है ।
(६) अर्थगतरमणीयता——(रामायण)
तन सकोच मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेम लखि परै न काहू ॥
जाइ समीप राम छवि देखी । रहि जनु कुँवरि चित्र अवरेखी ॥
पद्माकर--
जैसी छवि श्याम की पगी है तेरी आँखिन में
ऐसी छवि तेरी श्याम आँखिन पगी रहै ।
कह पदमाकर ज्यों तान में पगी है त्योंही
तेरी मुसकानि कान्ह प्राण में पगी रहै ।