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इसके आशय तथा अन्तर्गत भक्ति-भाव के समझने में विलम्ब नहीं होता ।

(२) विचार्यमाण रमणीय--जिसके रसास्वादन में कुछ सोचने की जरूरत होती है । जैसे बिहारी की उक्ति--

मानहु मुख दिखरावनी दुलहिन करि अनुराग ।

सासु सदन मन ललनहुँ सौतिन दियो सुहाग ॥

इसमें कुछ विचारने ही से अन्तर्गत भाव का बोध होता है । अथवा––

नयना मति रे रसना निज गुण लीन्ह ।

कर तू पिय झझकारे अपयस लीन्ह ॥

(३) समस्तसूक्तव्यापी--जो सम्पूर्ण कविता में है--उसके किसी एक आध खण्ड में नहीं । जैसे उक्त बिहारी का दोहा । अथवा तुलसी-दासजी का दोहा--

उदित उदयगिरिमंच पर रघुवर बालपतंग ।

विकसे सन्तसरोजवन हरष लोचनभंग ॥

यहाँ समस्त दोहा में भाव व्याप्त है––किसी एक खंड में नहीं ।

(४) सूक्तैकदेशदृश्य--जो कविता के किसी एक अंश में भासित हो । जैसे कुमारसम्भव के श्लोक में ।

द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः ।

कला च सा चान्द्रमसी कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी॥

पार्वतीजी से बटु कहता है--‘कपाली शिव जी के साथ रहने की इच्छा करती हुई तू तथा चन्द्रमा की कला दोनों शोचनीय दशा को प्राप्त हुई ।’ इस पद्य का समस्त भाव ‘कपालिनः’ पद में हैं । शिवजी का सहवास शोचनीय क्यों है ?--क्योंकि वे कपाली हैं, भिखारी हैं । जैसा साहित्य ग्रन्थों में लिखा है ‘कपालिनः’ पद के स्थान में यदि उसी अर्थ का पद ‘पिनाकिनः’ होता तो भाव पुष्ट नहीं होता । हिन्दी में यह एकदेशरमणीयता कवित्तों में अधिक पाई जाती है । यथा--एक कवित्त के पूर्वार्द्ध

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