कवियों के लिए और कई नियम बताये गये हैं । जब तक काव्य पूरा नहीं हुआ है तब तक दूसरों के सामने उसे नहीं पढ़ना । नवीन काव्य को अकेले किसी आदमी के सामने नहीं पढ़ना। इसमें यह डर रहता है कि वह आदमी उस काव्य को अपना कहकर ख्यात कर देगा——फिर कौन साक्षी दे सकेगा कि किसकी रचना है ? अपने काव्य को मन ही मन उत्तम न समझ बैठना, न उसका डींग हाँकना । अहंकार का लेशमात्र भी सभी संस्कारों को नष्ट कर देता है । अपने काव्य को दूसरों से ऊँचवाना । यह बात प्रसिद्ध है कि गुण दोष जैसे पक्षपात-रहित उदासीन पुरुष को जंचते हैं वैसे स्वयं काम करनेवाले को नहीं। जो अपने को बड़ा कवि लगावे उसकी रुचि के अनुसार उसके चित्त को प्रसन्न कर देना ही ठीक है——फिर अपने काव्य को ऐसे कविम्मन्य के सामने नहीं पढ़ना । एक तो वह उसका गुण ग्रहण नहीं करेगा, दूसरा यह भी संभव है कि वह उसे अपना कहकर ख्यात कर दे ।
कवि के लिए काल केहिसाब से कार्यक्रम के भी नियम बनाये गये हैं । दिन को और रात को चार-चार पहरों में बाँटना । प्रातःकाल उठकर सन्ध्या-पूजा करके सारस्वतसूक्त पढ़ना । फिर एक पहर तक विद्याभवन में आराम से बैठ कर काव्योपयोगी विद्या और उपविद्याओं का अनुशीलन करना । ताज़ा संस्कार से बढ़कर प्रतिभा का उद्बोधक दूसरा नहीं है । दूसरे पहर में काव्य की रचना करना । मध्याह्न के लगभग जाकर स्नान करके शरीर के अनुकूल भोजन करना । भोजन के बाद काव्यगोष्ठी का अधिवेशन । प्रश्नों के उत्तर--समस्या-पूर्ति-मातृकाभ्यास और चित्रकाव्य प्रयोग इत्यादि तीसरे पहर तक करना । चौथे पहर में अकेले या परिमित पुरुषों के सङ्ग बैठकर प्रातःकाल जो काव्य रचा है उसकी परीक्षा करना । रस के आवेश में जो काव्य रचा जाता है उस समय गुण-दोष-विवेक करने की बुद्धि नहीं चलती । इसलिए कुछ समय बीतने ही पर स्वरचित काव्य की परीक्षा हो सकती है । परीक्षा करने पर यदि कुछ अंश अधिक भासित हो तो उसे हटाना——जो कमी हो उसकी पूर्ति करना——जो उलटा पलटा हो उसका परिवर्तन करना——जो भूल गया हो उसका अनुसन्धान करना । सायंकाल