विचार केवल उन कवियों को आवश्यक होगा जो एकदेशी आंशिक कवि हैं । जो सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं उनके लिए जैसी एक भाषा वैसी सब भाषा । पर इनके लिए भी जिस देश में हों उस देश में जिस भाषा का अधिक प्रचार हो उसी भाषा का आश्रयण करना ठीक होगा। जैसे कहा है कि गौडादि देश में संस्कृत का अधिक प्रचार था, लाट देश में प्राकृत का, मरुभूमि में सर्वत्र अपभ्रंश का, अवन्ती, पारियात्र, दशपुर में पैशाची का, मध्यदेश में सभी भाषा का । जनता को क्या पसन्द है क्या नापसन्द है यह भी पता लगाकर जो नापसन्द हो उसका परित्याग करना । परन्तु केवल सामान्य जनता में अपना अपयश सुनकर कवि को आत्मग्लानि नहीं होनी चाहिए, अपने दोष-गुण को परीक्षा स्वयं भी करना चाहिए । इस पर एक प्राचीन श्लोक है--
धियाऽऽत्मनस्तावदचार नाचरेत् जनस्तु यदि स तद् वदिष्यति ।
जनावनायोद्यमिनं जनार्दनं जगत्क्षये जीव्यशिवं शिवं वदन् ।
अर्थात् “अपनी समझ में अनुचित कार्य नहीं करना । सामान्य जनता को तो जो मन आवेगा कहेगा । जगत् की रक्षा में तत्पर हैं भगवान् विष्णु उनको तो लोग ‘जनार्दन’ (लोगों को पीड़ा देनेवाला) कहते हैं । और जगत के संहारकर्ता हैं महादेवजी उनको ‘शिव’ (कल्याणकारक) कहते हैं ।” खासकर प्रत्यक्ष-जीवित कवि के काव्य का सत्कार बहुत कम होता है ।
प्रत्यक्षकविकाव्यं च रूपं च कुलयोषितः ।
गृहवैद्यस्य विद्या च कस्मैचिद्यदि रोचते ॥
अर्थात् जीवित कवि का काव्य, कुलवधू का रूप और घर के वैद्य की विद्या--कदाचित् ही किसी को भाती है ।
बालकों के, स्त्रियों के और नीच जातियों के काव्य बहुत जल्दी मुख से मुख फैल जाते हैं । परिव्राजकों के, राजाओं के, और सद्यःकवि (तत्क्षण काव्य करनेवाले) के काव्य एक ही दिन में दशोंदिशा में फैल जाते हैं । पिता के काव्य को पुत्र, गुरु के काव्य को शिष्य और राजा के काव्य को उनके सिपाही इत्यादि बिना विचारे पढ़ते हैं और तारीफ़ करते हैं ।