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और काव्यों में रसयुक्त ही विषय होना चाहिए--नीरस या विरस नहीं । यह अनुभव की बात है कि कई विषय रस को पुष्ट करते हैं और कई उसे बिगाड़ते हैं । पर काव्यों में कवियों की उक्तियों में रसवत्ता शब्दों में है या अर्थों में सो अन्वयव्यतिरेक ही से ज्ञात हो सकता है । अर्थात् किसी काव्य को देखने या सुनने पर यदि हम देखें कि जो शब्द इनमें हैं ये जहाँ-जहाँ रहते हैं तहाँ तहाँ ही रस है--जहाँ ये शब्द नहीं हैं तहाँ रस नहीं हैं--तो ऐसे स्थल में शब्द ही से रस माना जायगा । जहाँ अर्थ ही के प्रसंग में ऐसा भान होगा तहाँ अर्थ ही से रस माना जायगा । कुछ लोगों का मत है कि बर्णित वस्तु कैसी भी हो--रस का होना या न होना वक्ता के स्वभाव पर निर्भर होता है । जैसे अनुरागी पुरुष जिसी पदार्थ की प्रशंसा करेगा विरक्त पुरुष उसी की निंदा करेगा । वस्तु का स्वभाव स्वतः नियत नहीं है चतुर वक्ता की वाक्यशैली पर बहुत कुछ निर्भर रहता है । ऐसा मत अवन्तिसुन्दरी का है ।

इनका कहना है--

वस्तु स्वभावोऽत्र कवेरतन्त्रो गुणागुणावुक्तिवशेन काव्ये ।

स्तुवन्निबध्नात्यमृतांशुमिन्दुं निन्दंस्तु दोषाकरमाह धूर्तः ॥

कवि वस्तु स्वभाव के अधीन नहीं है । काव्य में वस्तुओं के गुण या दोष कवि की उक्ति पर ही निर्भर रहता है । चन्द्रमा एक ही बस्तु है । पर चतुर कवि जब उसकी प्रशंसा करता है तो उसको अमृतांशु (अमृतमय किरणवाला) कहता है--और जब उसी की निन्दा करता है तो दोषाकर (दोषों का आकर) कहता है ।’

पर असल में दोनों पक्ष ठीक है । काव्य का चमत्कार वर्णित वस्तु के स्वभाव पर भी निर्भर होता है और वस्तुओं के दोष-गुण कविकृत वर्णन पर भी निर्भर होते हैं ।

काव्य का विषय दो प्रकार का होता है--मुक्तकविषय तथा प्रबन्ध- विषय । इन दोनों के प्रत्येक पाँच-पाँच प्रभेद हैं--शुद्ध, चित्र, कथोत्थ,

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