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सहित--और उदार । (२) ‘वैद्याधर’ वचन अनुप्रास की छाया-मात्र-समेत, चतुर उक्ति से पूर्ण, प्रसादगुणसंपन्न और लंबेसमाससहित । (३)गान्धर्व’ वचन बहुत पर छोटे समासों से भरा--जिसके तत्त्वार्थ समझने के लायक हैं । (४) ‘योगिनीगत’ वचन समास और रूपक से परिपूर्ण--गम्भीर अर्थ और पदक्रम सहित--सिद्धांतों के अनुसार । ‘भौजंग’ वचन भी प्रभावशाली होने के कारण ‘दिव्य’ माना गया है । इसमें प्रसादगुण-युक्त मधुर उदात्तपद समस्त तथा व्यस्तरूप से रहते हैं। इसमें ओजस्वी शब्द नहीं रहते ।

इन ‘दिव्य’ वचनों का उपदेश इसलिए आवश्यक है कि नाटकों में जब कवि इन देवताओं या देवयोनियों की उक्तियों को लिखेगा तो उनके वचन किस प्रकार के होने चाहिए सो जाने बिना कैसे लिख सकेगा ?

यह बात प्रसिद्ध है कि मर्त्यलोक में अवतार लेने पर जैसे वचनों में भगवान् वासुदेव की अभिरुचि थी वही ‘वैष्णव’ वचन है--उसी को ‘मानुष’ वचन भी कहते हैं ।

इस ‘वैष्णव’ ‘मानुष’ वचन के तीन भेद हैं --जिसे तीन ‘रीति’ कहते हैं । इनके नाम हैं--वैदर्भी, गौडी, पांचाली ।

इसके अतिरिक्त ‘काकु’ अनेक प्रकार की होती है । ‘काकु’ ध्वनि(उच्चारण) के विकार का नाम है। राजशेखर ने इसका लक्षण लिखा है ‘अभिप्रायवान् पाठधर्मः काकु:’--अर्थात् किसी अभिप्रायविशेष से यदि उच्चारण के स्वरादि में कुछ विलक्षण परिवर्तन कर दिया जाय उसी को ‘काकु’ कहते हैं । यह दो प्रकार की होती है--साकांक्ष, निराकांक्ष । जिस काकु के समझने में दूसरे वाक्य की अपेक्षा होती है वह काकु साकांक्ष है । जो काकु वाक्य के बाद स्वतन्त्र रूप से भासित हो सो निराकांक्ष है । साकांक्ष काकु तीन प्रकार की है--आक्षेपगर्भ, प्रश्नगर्भ, वितर्कगर्भ । निराकांक्ष काकु भी तीन प्रकार की है--विधिरूप, उत्तररूप, निर्णयरूप । इनके अतिरिक्त मिश्रित काकु के अनन्त प्रकार हैं । जैसे अनुज्ञा-उपहास-मिश्रित, अभ्युमगम-अनुनय-मिश्रित इत्यादि । जो अर्थ का चमत्कार केवल शब्दों से नहीं निकलता सो काकु से निकलता है ।

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