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चरन्ति चचतुरम्भोधिबेलोद्यानेषु दन्तिनः ।


चक्रबालाद्रिकुञ्जेषु कुन्दभासो गुणाश्च ते ॥

यहाँ ‘चरन्ति’ क्रियापद का उसी रूप में ‘गुणाः’ के साथ भी अन्वय है ।

(७) समचिताख्यात——जहाँ एक ही क्रियापद ऐसा चुनकर रवखा गया जो उपमान उपमेय दोनों में यथावत् लगता है । जैसे--

परिग्रहभराक्रान्तं दौर्गत्यगतिचोदितम् ।

मनो गन्त्रीव कुपये चीत्करोति च याति च ॥

(८) अध्याहृताख्यात——जहाँ क्रियापद स्पष्ट नहीं है पर अध्याहृत हो सकता है--जैसे

चन्द्रचूडः श्रिये स वः

यहाँ ‘भूयात्’ अध्याहृत है ।

(९) कृदभिहिताख्यात——जहाँ क्रियापद का काम कृदन्तपद देता है--जैसे

अभिमुखे मयि संहृतमीक्षितम्

यहाँ ‘ईक्षितं समहार्षीत’ की जगह ‘ईक्षितं संहृतम्’ है । (१०) अनपेक्षिताख्यात——जहाँ क्रियापद के उल्लेख की आवश्यकता नहीं है । जैसे--

कियन्मात्रं जलं विप्र

यहाँ ‘अस्ति’, ‘भवति’ का प्रयोजन नहीं है

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गुण और अलंकारसहित वाक्य ही को ‘काव्य’ कहते हैं । काव्य के लक्षण के प्रसंग ग्रन्थों में अनन्त शास्त्रार्थ है । इस विचार का यहाँ अवसर नहीं है ।

काव्य के विरुद्ध कई आक्षेप किये जाते हैं ।

(१) काव्यों में प्रायः मिथ्या ही बातों के वर्णन पाये जाते हैं । इसलिए काव्य का उपदेश अनुचित है——

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