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निबद्ध कर सकता है । महाकवियों की तो ऐसी शक्ति होती है कि एक ही भाव को नाना प्रकार के शब्दों में प्रदर्शित कर सकते हैं । इसलिए उचित लक्षण यही है कि वर्णनीय रस के योग्य शब्द और अर्थ का निबन्धन जब हो तभी कवित्व को ‘परिपक्व’ समझना चाहिए । और ऐसा परिपाक हुआ या नहीं इसमें सहृदयों का हृदय ही प्रमाण हो सकता है ।

यह परिपाक नव प्रकार का होता है--(१) आदि में और अन्त में जो विरस है उसे 'पिचुमन्दपाक' कहते हैं । (२) आदि में विरस अन्त में मध्यम उसे ‘वदरपाक’ । (३) आदि में विरस अन्त में सरस उसे ‘मद्वीकापाक’ । (४) आदि में मध्यम अन्त में विरस ‘वार्ताकपाक’ । (५) आदि में और अन्त में मध्यम ‘तिन्तिडीपाक’ । (६) आदि में मध्यम अन्त में सरस ‘सहकारपाक’ । (७) आदि में सरस अन्त में विरस ‘क्रमुकपाक’ । (८) आदि में सरस अन्त में मध्यम ‘पुसपाक’ । (९) आदि में अन्त में सरस ‘नारिकेलपाक’ । इनमें (१), (४), (७) सर्वथा त्याज्य हैं । (२), (५), (८) का संशोधन करना और बाकी (३), (६), (९) का ग्रहण करना चाहिए ।



(६)

व्याकरणशास्त्र के अनुसार जिसका रूप निर्णीत हो उसे 'शब्द' कहते हैं । निरुक्त-निघंटु-कोश आदि से निर्दिष्ट जो उस शब्द का अभिधेय है-वही उसका 'अर्थ' है । शब्द और अर्थ दोनों मिलकर 'पद' कहलाते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि जब तक हम किसी शब्द का अर्थ नहीं जानते तब तक हमारे लिए वह 'पद' नहीं है । पदों की वृत्ति पाँच प्रकार की है--सुब्वृत्ति, समासवृत्ति, तद्धितवृत्ति, कृवृत्ति, तिब्वृत्ति ।

सुब्वृति केभी पाँच भेद हैं । (१) जातिवाचक--‘गाय’, ‘घोड़ा’,‘पुरुष’, ‘हाथी’ । (२) द्रव्य (व्यक्ति) वाचक-‘हरि’, ‘हिरण्यगर्भ’,‘काल’, ‘आकाश’, ‘दिक्’। (३) गुणवाचक-‘श्वेत’, ‘कृष्ण’, ‘लाल’,

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