(५) घटमान--जो शुद्ध फुटकर कवितायें तो करता है पर कोई प्रबन्ध नहीं रचता ।
(६) महाकवि--जो किसी एक तरह का काव्य-प्रबन्ध रचता है ।
(७) कविराज--जो अनेक भाषाओं में भिन्न-भिन्न रसों के काव्य- प्रबन्धों की रचना करता है । ऐसे कवि संसार में बहुत कम होते हैं ।
(८) आवेशिक--जो मन्त्रादि उपदेश के बल से सिद्धि प्राप्त करके जिस समय उस सिद्धि का प्रभाव रहता है तब तक काव्य करता है ।
(९) अविच्छेदी--जो जभी चाहे निरवच्छिन्न कविता कर सकता है ।
(१०) संक्रामयिता--जो मन्त्र-सिद्धि के बल से अपनी सरस्वती (कवित्व-शक्ति) का कन्याओं या कुमारों में संक्रमण कर सकता है ।
मन्त्रसिद्ध कवियों के दो उदाहरण प्रसिद्ध हैं । पर नाम उनका ज्ञात नहीं है । एक वे जो सभाओं में जाकर जो बात करें सब भुजंगप्रयात छन्द में । उनकी प्रतिज्ञा होती थी ।
अस्यां सभायां ममैषा प्रतिज्ञा भुजंगप्रयातैर्विना वाङ न वाच्या ॥
दूसरे काश्मीर राजा की सभा में जाकर शास्त्रार्थ करने लगे--सभी बात पद्यों ही में कहे । उनके प्रतिवादी कई कक्षा के बाद गद्य में बोलते हुए भी शिथिल पड़ने लगे । तब सिद्धजी ने कहा--
अनवये यदि पद्ये गये शैथिल्यमावहसि ।
तत्कि त्रिभुवनसारा तारानाराधिता भवता ॥
अर्थात्--मेरे अनवद्यपद्यों के सामने गद्य कहते हुए भी आप शिथिल हो चले, सो क्या आपने श्रीतारादेवी की आराधना कभी नहीं की ?
कविता के सतत अभ्यास से सुकवि की रचना परिपक्व होती है । कविता का ‘परिपाक’ क्या है इसमें मतभेद है । वामन का मत है कि जब कविता के शब्द ऐसे ठीक बैठ जायें जिससे एक अक्षर का भी उलट फेर होने से सब बिगड़ जाय तो उस कविता को ‘परिपक्व’ समझना । पर अवन्तिसुन्दरी का मत है कि यह तो एक प्रकार की कवि में न्यूनता है कि अपने काव्य को केवल एक ही तरह की शब्द-रचना में